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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । चेतस्तत्र गुरोः प्रवोधवसतेः किश्चित्तदाकय॑ते प्राप्ते यत्र समस्तदुखविरमाल्लभ्यत नित्यं सुखम् ॥१४॥
अर्थः-आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे मन चिरकालसे तूने बाह्य स्त्री आदि पदार्थीको देखा है इसलिये तेरा भ्रमसे उनमें अनुराग होता है तथा उसी अनुरागसे सदा तू दुःखित होता है इसलिये स्त्री आदिसे राग छोड़ कर तू अपने अंतरंगमें प्रवेश कर तथा ज्ञानके सागर श्रीपरमगुरुसे ऐसा कोई उपदेश सुन जिससे तेरे समस्त दुःखोंका नाश हो जावे तथा तुझै अविनाशी मोक्षरूपी सुखकी प्राप्ति हो जावे ।
भावार्थः-बाह्य चीजोंमें अनुराग तथा ममता कर हे मन तूने बहुतसे दुःखोंको भोगा इसलिये अव अपने अंतरंगमें प्रवेश कर, तथा श्रीगुरुका उपदेश सुन, जिससे तुझको अविनाशी सुखकी प्राप्ति होवे ॥१४॥
पृथ्वी । किमाल कोलाहलैरमलबोधसम्पन्निधेः समस्ति किल कौतुकं किल तवात्मनो दर्शने । विरुद्धसकलेन्द्रियो रहसि मुक्तसंगग्रहः कियन्त्यपि दिनान्यतः स्थिरमना भवान् पश्यतु ॥१४॥
अर्थः-आचार्य उपदश देते हैं कि यदि तू समस्तनिर्मलज्ञानके धारी आत्माके देखने की इच्छा करता है तो तुझे समस्त स्पर्शनादि इन्द्रियोंको रोककर तथा समस्त प्रकारके स्थान परिग्रहका नाशकर और कुछदिन एकान्तमें बैठकर तथा कुछदिन स्थिरमन होकर उसको देखना चाहिये व्यर्थ कोलाहलकरने में क्या रक्खा है
भावार्थ:-जबतक इन्द्रियां वाद्यपदार्थों में फंसी रहेगी तथा जबतक निरन्तर परिग्रहमें ममता रहेगी और जबतक मन चंचल रहेगा तबतक कदापि आत्मा का स्वरूप देखने में नहीं आसक्ता इसलिये जो भव्यजीव आत्माके स्वरूपको देखना चाहते हैं उनको इन्द्रियों को रोकना चाहिये तथा परिग्रहका त्याग करना चाहिये और मन को निश्चल करना चाहिये तभी आत्माका खरूप मालूम पड़सक्ता है ॥१४॥
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