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पचनन्दिपश्चविंशतिका । (जीव और मनका परस्पर में संवाद)
शाल विक्रीड़ित । भोचेताकिमु जीव तिष्ठसि कथं चिंतास्थितं सा कुतो रागद्वेषवशात्तयोःपारचयःकस्माच्च जातस्तव । इष्टानिष्टसमागमादिति यदि स्वभ्रं तदावां गतौ नोचेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरादिष्टादिसंकल्पनम् १४५॥
अर्थः-जीव मनसे पूछता है कि रे मन तू कैसे रहता है, मन उत्तर देता है कि मैं सदा चिंता में व्यग्र रहता हूं फिर जीव पूछता है कि तूझे चिंता क्यों है फिर मन उत्तर देता है कि मुझे राग द्वेष के सबब से चिंता है फिर जीव पूछता है कि तेरा इनके साथ परिचय कहां से हवा फिर मन उत्तर देता है कि भली बुरी वस्तुओंके संबंधसे राग द्वेषका परिचय हुवा है तब फिर जीव कहता है कि हेमन यदि ऐसीबात है तो शीघ्र ही भली खुरी वस्तुओंके संबंध को छोड़ो नहीं तो हम दोनोंको नरक में जाना पडेगा ।
भावार्थ:-स्वभावसे न कोई वस्तु इष्ट है न अनिष्ट है इसलिये इष्ट तथा अनिष्ट में संकल्पकर रागद्वेष करना निष्प्रयोजन है क्योंकि रागहषसे केवल दुःखही भोगने पड़ते हैं इसलिये समस्तपरवस्तुओंको छोड़कर समताही धारण करनी चाहिये ऐसी अपने २ मनको निरन्तर भव्य जीवोंको शिक्षा देनी योग्य है ॥ १४५॥ ज्ञानज्योतिरुदेति मोहतमसो भेदः समुत्पद्यते सानन्दा कृतकृत्यता च सहसा स्वान्ते समुन्मीलति। यस्यैकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवानत्रैव देहान्तरे देवस्तिष्ठति मृग्यतां स रभसादन्यत्र किं धावत ॥१४६।।
अर्थः-आचार्य उपदेश देते हैं कि जिस एक आत्माके स्मरणमात्रसे सम्यग्ज्ञान रूपी तेजका उदय होता है तथा मोहरूपी अंधकार दूर होजाता है और चित्तमें नानाप्रकारका आनन्द होता है तथा कृतकृत्यताभी चित्तमें उदित होजाती है वही अनन्त शक्तिका घारक भगवान् आत्मा इसही शरीरमें निवास करता है उसको दड़ो व्यर्थ क्या दूसरीजगह अज्ञानी होकर फिरते हो । ॥१४॥
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