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॥८२॥
पद्मनन्दिपश्चविंशतिका।। प्रकारके विकल्पोंसे भी मैं भिन्नहूं और शब्द रस आदिसेभी मैं जुदाहूं तथा मेरी एक चैतन्यमयी मूर्ति है और मैं समस्तप्रकारके मलकर रहितहूं तथा क्रोधादिके अभावसे मैं सदा शांतहूं और सदाकाल आनन्दका भजनेवालाहूं इसप्रकारका जिसके मनमें मजबूत श्रद्धान है तथा समताका धारी होनेसे जिसका समस्तप्रकारका आरम्भ छूटगया है ऐसे मनुष्यको किसीप्रकार संसारसे भयनहीं होसक्ता और जब उसको संसारही भयका करनेवाला नहीं तच उसको कोई वस्तु भयकी करनेवाली नहीं होसक्ती ।
भावार्थः-जिस मनुष्यके इसप्रकारके विचार करनेसे समस्तप्रकारसे संसारका भय जाता रहा है उसपुरुषको और किसीवस्तुसे भय नहीं होसक्ता इसलिये भव्यजीवोंको इसप्रकार विचारकर संसारसे कदापि भयभीत नहीं होना चाहिये ॥ १४८॥ किंलोकेन किमाश्रयेण किमथद्रव्येण कायेन किं किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किंते विकल्पै-परैः। सर्वे पुद्गलपर्यया वत परे त्वत्तः प्रमत्तो भवन्नात्मन्नेभिरभिश्रयिष्यतितरामालेन किं वंधनम् ॥ १४९॥
अर्थः-आचार्य फिरभी उपदेश देतेहैं कि न तो तुझै लोकसे प्रयोजन है न लोकके आश्रय से प्रयोजन है और न तुझै द्रव्यसे प्रयोजन है न वाणीसे प्रयोजन है तथा न तुझै स्पर्शनादि इन्द्रियोंसे प्रयोजन है न तुझै खोटे विकल्पोंसे प्रयोजन है क्योंकि ये समस्त पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है और तू चैतन्य स्वरूप है इसलिये ये तेरे स्वरूपसे सर्वथा जुदे ही हैं अतः इनवस्तुओंमें प्रमाद करता हुवा क्यों वृथा तू दृढबंधनको बांधता है अर्थात् लोक आदिसे ममता करनेसे तू वंधेगाही छूटेगा नहीं।
भावार्थः-जिसप्रकार कोई चोर यदि परके द्रव्यको चुराकर अपना कहने लगे तो वह कैदमे जाकर नानाप्रकारके वंधनको प्राप्त होता है उसही प्रकार हेजीव यदि तूभी परकी चीजको अपनावेगा तो दृढ़वंधन
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