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॥६८॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । गोते नाता है किंतु यदि उसको जहाज मिलजावे तो वह शीघ्रही पार होजाता है उसही प्रकार कर्म (जिसका दूसरा नाम संसार है) एक प्रकारका भयंकर समुद्र है इसमें भी जबतक जीव ज्ञानरूपी जहाजको प्राप्त नहीं करते तबतक नानाप्रकारकी गतियोंमें भ्रमण करते हैं किंतु जिससमय वे उस अनुकूल ज्ञानरूपी जहाजको पालते हैं तो वे बातकीबातमें संसाररूपीसमुद्रसे पार होजाते हैं तथा फिर उनको संसाररूपी समुद्र में आना भी नहीं पड़ता इसलिये जिनजीवोंको इस संसाररूपीसमुद्रके पारकरनेकी अभिलाषा है उनको अवश्य ही ज्ञानरूपी अखंड जहाज का आश्रय लेना चाहिये ।। १३१ ॥
शार्दूलविक्रीदित । शश्वन्मोहमहान्धकारकलिते त्रैलोक्यसमन्यसौ जैनीवागमलप्रदीपकलिका न स्याद्यदि द्योतिका । भावनामुपलब्धिरेव न भवेत् सम्यक्तदिष्टेतरप्राप्तित्यागकृते पुनस्तनुभृतां दूरे मतिस्तादृशी ॥१३२॥
अर्थः-मोहरूपी गाढ़ अंधकारसे व्याप्त इसतीनलोकरूपीमकानको प्रकाशकरनेवाला यदि यह भगवान्की वाणीरूप दीपक न होता तो इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट का त्यागतो दूरहो मनुष्यों को पदार्थोंकाभी ज्ञान न होता।
भावार्थ:-जिसप्रकार किसी अंधेरेमकानमें बहुतसी वस्तुरक्खी हुई हैं यदि उनवस्तुओंका प्रकाश करनेवाला उसमकानमें दीपक न होगा तो उनमेंसे नतो लेनेयोग्य इष्टवस्तुओंको लेहीसक्ते हैं और न छोड़ने योग्य चीजों को छोडही सक्त हैं उसहीप्रकार जवतक पदार्थों के स्वरूप भलीभांति न आनेंगे तबतक नतो ग्रहणकरनेयोग्य वस्तुओंका ग्रहणही करसक्त हैं और न त्यागनेयोग्य वस्तुओंका त्यागही करसक्ते हैं इसलिये सबसे पहले पदार्थ का स्वरूप जानना चाहिये उनपदार्थों का जानना (बर्तमानमे केवली आदिके न होनेके कारण) बिना जिनवाणीके हो नही सक्ता इसलिये भव्यजीवोंको जिनवणीमाताका प्रीतिपूर्वक आश्रय करना चाहिये ॥१३२॥
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