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पचनन्दिपश्चविंशतिका । किन्तु आत्माका परिणामीपना तो भलीभांति अनुभवमें आता है तथा बौद्ध सर्वथा आत्माको क्षणिकही मान. ता है यहभी ठीक नहीं क्योंकि सर्वथा क्षणिकपक्षमें भी किसीप्रकारका परिणाम नहीं बनसक्ता और भी अनेक दोष आते हैं। तथा अनेक सिद्धांतकार आत्माको एकस्वरूपही मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि क्रोधी लोभी आदि अनेक भेदस्वरूप आत्मा अनुभव में आता है इसलिये आत्माको किसीप्रकारसे शरीरके परिमाणवाला तथा भूतोंसे नहीं उत्पन्नहुवा और किसीप्रकारस नित्य और क्षणिक तथा अनेक ही मानना चाहिये ॥ १३७ ॥
शार्दूलविक्रीड़ित । कुर्यात्कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ भुंक्त स्वयं तत्फलं सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा नचान्यादृशः। चिद्रूपः स्थितिजन्मभंगकलितः कर्मावृतः संसृतौ मुक्तो ज्ञानदृगैकमूर्तिरमलस्त्रैलोक्यचूडामणिः ॥१३॥
अर्थः-ग्रन्थकार कहते हैं कि यह आत्मा शुभ तथा अशुभकर्मीको निरन्तर करता रहता है तथा सातवेदनी और असातवेदनीकर्मके उदयसे स्वयं उसका फल भोगता है किंतु अन्य कोई कर्ता तथा भोक्ता नहीं और यह अत्मा सदा चैतन्य स्वरूप है तथा उत्पाद व्यय प्रौव्य तीनों धर्मोंसे सहित है और संसरावस्थामें यह कर्मोकर सहित है परंतु मोक्ष अवस्थामें इसके साथ किसी कर्मका संबंध नहीं तथा यह आत्मा सम्यक् दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका धारक है और तीनोंलोकके शिखरपर विराजता है ॥ १३८ ॥
____ वसन्ततिलका। आत्मानमेवमाधिगम्य नयप्रमाणनिक्षेपकादिभिरभिश्रयतैकचित्ताः
भव्या यदीच्छत भवार्णवमुत्तरीतुमुत्तुङ्गमोहमकरोग्रतरंगभमिम् ॥१३९॥ अर्थः-फिर भी आचार्य उपदेश देते हैं भव्यजीवों यदि तुम मोहरूपी मगर कर सहित तथा गंभीर
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