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पचनन्दिपश्चविंशतिका । है तथा किसीकेसाथ उसका द्वेषपूर्वक वर्ताव होनेसे कोई अत्यंतदरिद्री है यदि कहोगे कि राजा तथा रंक होना यह अपने कर्मों के आधीन है तो कर्मको ही कारण मानना चाहिये ऐसे ईश्वरकी माननेकी क्या आवश्यकता है इत्यादि अनेकयुक्तियोंसे ईश्वररूपआत्मा कदापि कर्ता नहीं वनसक्ता यदि किसीरीतिसे कर्ता मानो तो ठीक भी होसक्ता है क्योंकि सर्वही जीव अपने २ कर्म तथा स्वरूप आदिके की हैं किंतु सर्वथा नहीं।
तथा अनेकवादियोंका यह कथन है कि आत्मा एकरूपही है अनेकरूप नहीं उनको आचार्य श्रेष्ट मार्ग पर लाकर कहतेहैं कि (नैक:) अर्थात् आत्मा सर्वथा एकरूप नहीं किन्तु किसीरीतिसे एकरूा है तथा किसी रीतिसे अनेकरूप है अर्थात् अपने स्वरूपसे तो एकरूप है किंतु अनेक धर्मोंको धारण करता है इसलिये वह अनेकरूप भी है तथा वौद्ध आत्माको क्षणिकही मानते हैं अर्थात् उनका सिद्धांत है कि जितने भर संसारमें पदार्थ हैं वे सव क्षणिक हैं इसलिये आत्माभी क्षणिकही है उनको आचार्य समझाते हैं कि (न क्षणिका) अर्थात् तुमने जो आत्माको सर्वथा क्षणिक मानरक्खा है वैसा सर्वथा आत्मा क्षणिक नहीं है किन्तु प्रत्येक द्रव्यको क्षण २ में पर्याय पलटती रहती हैं इसलिये तो आत्मा पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे क्षणिक भी है किंतु द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे वह नित्य भी है इसलिये आत्माको सर्वथा वैसा न मानकर किसीरीतिसे शून्य है किसीरीतिसे नहीं है ऐसा मानना चाहिये तथा शरीराकार प्रदेशी मानना चाहिये तथा ज्ञानकाधारी मानना चाहिये और स्वयं करनेवाला तथा भोगनेवाला मानना चाहिये और उत्पादआदि धर्मोंका धारी मानना थाहिये इसहीप्रकारसे आत्माके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान होसक्ता है ॥ १३ ॥
शार्दूलविक्रीड़ित । कात्मा तिष्ठति कीदृशःस कलितोकेनात्र यस्येदृशीभ्रान्तिस्तत्र विकल्पसंभृतममायाकोऽपि स ज्ञायताम
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