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॥६२॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । प्रयोगसे विकल होकर उसके आधीन पड़े हुवे हैं और अपने स्वरूपको भी नहीं जानते हैं तथा नानाप्रकारकी आपत्तियों को सहते हैं इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि हे जीव तुझे उस ज्ञानानन्दखरूप आत्माही का अर्थात् श्रीसर्वज्ञदेवकाही आश्रयण करना चाहिये।
भावार्थ:--ज्ञानानन्दस्वरूपआत्माके आश्रयण करने पर प्रबल भी ठग मोह कुछ भी नहीं करसक्ता है इसलिये भव्यजीवोंको ज्ञानानन्दस्वरूपआत्माकाही आराधन करना चाहिये ॥१२॥ ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशनतया मूढ़ा हि ये कुर्वते सर्वेषां टिरिटल्लितानि पुरतः पश्यन्ति नो व्यापदः । विद्युल्लोलमपि स्थिरं परमपि स्वं पुत्रदारादिकं मन्यन्ते यदहो तदत्र विषमं मोहप्रभोः शासनम् ॥१२॥
अथे:-मूढ़पुरुष मैं लक्ष्मीवान् हूं तथा मै ज्ञानवानहूं इत्यादि अपने गुणोंको प्रकाशित करते हैं तथा समस्तपुरुषों के सामने नानाप्रकारकी गालियोंको वकते हैं किन्तु आनेवाली नरकादि विपत्तियोंपर कुछभी ध्यान नहीं देते तथा विजलीके समान चंचलभी पुत्र स्त्री आदिको स्थिर मानते हैं और अपनेसे भिन्न भी उनको अपना मानते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि मोहचक्रवर्तीकी आज्ञा बड़ी कठोर है।
भावार्थः-परको अपना मानना तथा चंचलको स्थिर मानना और मत्त होकर व्यर्थ नाना प्रकार की खराव चेष्टाकरना मोहके उदयसेही होता है इसलिये उत्तम पुरुषोंको मोहके नाश करनेकेलिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये ॥ १२१ ॥
शिखरिणी । कयामः किंकुर्मः कथमिह सुखं किंनु भविता कुतोलभ्या लक्ष्मीः कइहनृपतिः सेव्यत इति । विकल्पानां जालं जड़यति मनः पश्यत सतामपिज्ञातार्थानामिहमहदहो मोहचरितम् ॥१२२॥
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