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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः--श्रुतके दो भेद हैं एक अंगश्रुत दूसरा बाह्यश्रुत उनमें अंगश्रुत बारहप्रकारका जिनेंद्रभगवानने कहा है तथा बाह्यश्रुतके अनन्तभेद कहे हैं परन्तु उनदोनोंश्रुतोंमें ज्ञानदर्शनशालीआत्मा ही ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) कहा है किन्तु उससे जुदे समस्त पदार्थ हेय (त्यागने योग्य) कहे हैं ॥१२६॥
अल्पायुषामल्पधियामिदानीं कुतः समस्तश्रुतपाठशक्तिः।
तदत्रमुक्तिपतिबीजमात्रमभ्यस्यतामात्महितं प्रयत्नात् ॥१२॥ अर्थः-इसपंचमकालमें ज्ञान आयु आदिके निरंतर क्षीण होनेसे मनुष्य अल्पायु तथा अल्पज्ञानके धारी रहगये हैं इसलिये वे समस्त श्रुतका अभ्यास नहीं करसक्ते अतः जो पुरुष मोक्षके अभिलाषी हैं उनको मुक्तिके देनेवाले तथा आत्माके हितकारी श्रुतका तो अवश्य ही बड़े प्रयत्नके साथ अभ्यास करना चाहिये ॥१२७।।
. स्रग्धरा निश्चेतव्योजिनेन्द्रस्तदतुलवचसां गोचरेर्थे परोक्षे कार्यःसोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणात्र कोलाहलेन । सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा भो भो भव्या यतध्वं दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाजः
अर्थ-वर्तमानकालमें जिनेंद्र है ऐसा विश्वास अवश्य करना चाहिये तथा जो पदार्थ सूक्ष्म तथा दूर होनेकेकारण दृष्टिगोचर नहीं है किंतु जिनेंद्रने उनका वर्णन अपनी दिव्यध्वनिसे किया है तो वे भी अवश्य हैं ऐसा मानना चाहिये परंतु जिनेंद्र अथवा जिनेंद्रकेवचनमें व्यर्थ संशय करना ठीक नहीं क्योंकि इसकालमें समस्तजीव थोडेज्ञानके धारी हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि “जिनभगवानसे कहेहुवेसिद्धांतमार्गसे खानुभव को प्राप्त कर सदा प्रबुद्ध, और अपनी आत्मामें प्रीतिको भजनेवाले, हे भव्यजीवो तुम सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकूचारित्ररूपी निधिमें अवश्य यत्न करो।
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