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पचनन्दिपश्चविंशतिका ।
पृथ्वी । कषायविषयोदुभटप्रचुरतस्करोघो हठात्तपःसुभटताडितो विघटते यतो दुर्जयः । अतोहि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मश्रिया यतिः समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥१९॥
अर्थः--आचार्य कहते हैं यद्यपि क्रोधादिकषायरूपी उहत तथा प्रबल चौरोंका समूह दुर्जय है अर्थात् साधारणरीतिसे जीतनेमें नहीं आसक्ता सो भी जिससमय तपरूपीप्रचलयोधा उसके सामने आता है उस. समय उसकी कुछ भी तीन पांच नहीं चलती अर्थात् वातकांचातमें वह जीत लिया जाता है इसलिये जो योगीश्वर तपरूपसुभटकेसाथ धर्मरूपीलक्ष्मीकर युक्त है। वह मोक्षरूपी नगरके मार्गमें निरुपद्रव तथा सुखसे चला जाता है।
भावार्थ-जिसप्रकार कोईमनुष्य विदेशको निकले तथा उसकेपास लक्ष्मी भी हो किन्तु उसकेपास कोई सुभट न हो तो वह बातकीबातमें भयंकर डाकुओंसे लूटलियाजाता है परन्तु यदि उसकेपास थोड़ेसे भी पनलयोधा हो तो उसका डांकू कुछ भी नहीं करसक्त अर्थात् उनडाकुओं को योधा तत्कालमें जीत लेते हैं उसहीप्रकार संसारमें कषाय तथा विषयरूपी योधा यद्यपि अत्यन्त दुर्जय है किन्तु जिसमुनिके पास तपरूपी प्रबल सुभट मौजूद हैं उसका वे कुछ भी नहीं करसक्ते तथा वे मुनि उपद्रवरहित सुखसे मोक्षको चले जाते हैं इस लिये मोक्षाभिलाषीमुनियोंको तप सबसे प्रिय समझना चाहिये ॥१९॥
__ मन्दाक्रान्ता । मिथ्यात्वादेर्यदिह भविता दुःखमुग्रं तपोभ्यो जातं तस्मादुदककणिकैकेव सर्वाधिनीरात् । स्तोकं तेन प्रसभमखिलकृच्छ्रलब्धे नरत्वे यद्येतर्हि स्खलसि तदहो का क्षतिर्जीव ते स्यात् ॥१०॥ आचार्य कहते हैं कि हे जीव जिसप्रकार समस्तसमुद्रकी अपेक्षा जल का कण अत्यन्त छोटा होता है उस
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