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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
तीनों चीजें होतीं तो उनमें से एकभी नहीं मरता इसलिये जुदे २ सम्यग्दर्शन आदि केवल दुःखही के देनेवाले है किन्तु तीनों मिले हुवेही कल्याणके देनेवाले हैं इसलिये भव्यजीवों को तीनोंकाही आराधन करना चाहिये ॥
मालिनी ।
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वहुभिरपि किमन्यैः प्रस्तरैः रत्नसंज्ञै र्वपुषिजनितखेदैर्भीरकारित्वयोगात् । हतदुरिततमोभिश्चारुरत्नैरनर्थे स्त्रिभिरपि कुरुतात्मालंकृतिं दर्शनाद्यैः ॥७६॥ अर्थ-संसार में यद्यपि रत्नसंज्ञा बहुतसे पत्थरोंकी भी है किन्तु उनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं क्योंकि वे केवल भारकारी होने के कारण शरीरको खिन्न करनेवाले ही हैं इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि हे मुनीश्वरो जो समस्त अंधकार के नाश करनेवाले हैं तथा अमूल्य और मनोहर हैं ऐसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकुचरित्ररूपी तीन रनों से ही अपनी आत्माको शोभित करो. येही वास्तविकरन है ॥७६॥
मालिनी ।
जयति सुखनिधानं मोक्षवृक्षैकबीजं सकलमलविमुक्तं दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रं भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव ॥ ७७॥ अर्थः-जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है चरित्र मिथ्याचरित्र कहलाता है प्राप्तहुवा भी मनुष्यजन्म न पायाहुवासा कहलाता है ऐसा सुखखरूप तथा मोक्षरूपी सुखका देनेवाला और निर्मल सम्य ग्दर्शनरूपीरत्न सदा इसलोकमें जयवंत है ॥७७॥
आर्या
भवभुजगनागदमनी दुःखमहादावशमनजलवृष्टिः । मुक्तिसुखामृतसरसी जयति दृगादित्रयी सम्यक् ॥७८॥
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