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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
कर्म के अस्तित्व का प्रबल प्रमाण : प्रत्यक्ष दृश्यमान संसार
अतः कर्म के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण यह विशाल तथारूप .. संसार है, जो प्रत्यक्ष दृश्यमान है। ___कई बार पर्वत पर लगी हुई आग प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती, किन्तु वहाँ से धुंआ उठता हुआ दिखाई देता है। उस धुंए पर से व्यक्ति अनुमान लगा देता है कि वहाँ अग्नि अवश्य होगी। इसी प्रकार कर्म अल्पज्ञानियों की दृष्टि में भले ही साक्षात् दिखाई न देता हो, परन्तु संसारस्थं जन्म, जरा, मरण, व्याधि, सुख-दुःख आदि नाना उपाधियाँ तो प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, इसलिए इस प्रत्यक्ष दृश्यमान संसार से उसके मुख्य कारणरूप 'कर्म' का होना अवश्यम्भावी सिद्ध होता है। ____ कर्म रूपी पुद्गल (जड़) होने से केवलज्ञानियों (सर्वज्ञ वीतरागों) की दृष्टि में प्रत्यक्ष है, इसलिए परोक्षज्ञानियों को संसार के साथ 'कम' को अनुमान प्रमाण से मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
बिजली को अल्पज्ञानी मनुष्य प्रत्यक्ष नहीं देख पाता, किन्तु बिजली के द्वारा होने वाले कार्य-बल्ब जलना, हीटर-कूलर का चूलना, मशीन और पंखे का चलना आदि तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में क्या बिजली के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकता है ? कदापि नहीं। इसी प्रकार परोक्ष (अल्प) ज्ञानियों की दृष्टि में चाहे 'कम' प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता हो, किन्तु कर्म से होने वाले संसारदशा के विविध कार्य तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। विविध गतियों-योनियों में जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, सुख-दुःख आदि तो हम प्रत्यक्ष होते देखते हैं, अर्थात्-विविध रूपों में विस्तृत संसार साक्षात् दृश्यमान है। ऐसी स्थिति में कोई भी समझदार व्यक्ति 'कर्मतत्त्व' से कैसे इन्कार कर सकता है ? आगम-प्रमाण से भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध है __आगमों में तो ऐसे अनेक वाक्य पद-पद पर कर्म के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। सर्वज्ञ भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था-२ “उन कर्मों के धागे से बंधा हुआ यह जीव नाना प्रकार के रूप धारण करता हुआ जन्म-मरणादिरूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है।" इतना ही नहीं, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा-'इस १ 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः' इति व्याप्तिः ।
-तर्कसंग्रह २ जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परियत्तइ ।
- उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३३ ३ एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं काय, अहाकम्मेहिं गच्छइ ।।
- वही, अ. ३, गा. ३
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