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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
क्या कर्म महाशक्तिरूप है ?
कर्मराज का सर्वत्र सार्वभौम राज्य
कर्म संसारस्थ प्रत्येक प्राणी के साथ लगा हुआ है । जीव ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, सुख, शरीर, मन, बुद्धि, शक्ति, प्राण, अंगोपांग, यश-अपयश, मान-सम्मान आदि सब कर्म की शक्ति के नीचे दबे हुए हैं। संसारस्थ जीव का कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिस पर कर्म छाया हुआ न हो। कर्म ही उसे सांसारिक सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, भौतिक उन्नतिअवनति, निन्दा-प्रशंसा, सम्मान-अपमान आदि द्वन्द्वों के हिंडोले में लगातार ऊपर-नीचे झुलाता रहता है। संसार की कोई भी गति, योनि, जन्म-स्थान, वातावरण, परिस्थिति, कक्षा, श्रेणी, भूमिका आदि ऐसी नहीं बची है, जहाँ कर्म का सार्वभौम राज्य न हो। संसार में सर्वत्र अबाधगति से इसका प्रवेश और प्रभाव है। पंचतंत्र में भी कहा गया है-"मनुष्यों का पूर्वकृत कर्म आत्मा के साथ-साथ रहता है। वह सोते हुए के साथ सोया रहता है, चलते हुए के पीछे-पीछे चलता है।" उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है- "कर्म कर्ता के साथ-साथ अनुगमन करता (पीछे चलता) है।" कर्म ही विधाता, शास्ता, ब्रह्मा, धर्मराज आदि है
__ वैदिक मनीषियों ने जिसे वरुणदेव, यमराज, चित्रगुप्त या धर्मराज के रूप में चित्रित किया है, जिसे वैदिक पौराणिकों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में उत्पत्ति, स्थिति और संहार का प्रतीक बताया है, वह जगद्-व्यापी महाशक्ति वस्तुतः 'कर्म' ही है। वही जगत् की विविध-वैचित्र्य-परिपूर्ण व्यवस्था का विधाता, शास्ता और कर्ता-धर्ता है। यही कारण है कि जैन आदिपुराण (महापुराण) में कर्म को ब्रह्मा का
१. (क) शेते सह शयानेन, गच्छन्तमनुगच्छति।
नराणां प्राक्तनं कर्म, तिष्ठत्यथ सहात्मनः॥ (ख) "कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।" २. 'कर्म रहस्य' (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १२५
-पंचतंत्र २/१३० उत्तराध्ययन १३/२३
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