________________
४९६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
को 'संसार' कहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकार के परावर्तनों में जीव कर्म के निमित्त से परिभ्रमण करता रहता है। चार गतियों और चौरासी लाख योनियों के प्राप्त होने और उनमें परिभ्रमण करने में संसारी जीव की जो विविध अवस्थाएँ होती हैं। उनमें भी मुख्य निमित्त कर्म है। संसारी अवस्थाओं का मुख्य और गौण निमित्त : कर्म और नोकर्म
संसार परिभ्रमण करते हुए जीव की मुख्य अवस्थाएँ इस प्रकार होती हैं-कभी वह एकेन्द्रिय होता है, कभी द्वीन्द्रिय, कभी त्रीन्द्रिय होता है; कभी चतुरिन्द्रिय और कभी पंचेन्द्रिय होकर भी कभी नारक होता है, कभी तिर्यञ्च, कभी मनुष्य होता है तो कभी देव। कभी वह बहुत कामी होता है, कभी क्रोधी होता है, लभी मानी होता है, कभी मायी। कभी विद्वान् और कभी मूर्ख होता है। एक ही जीव बहुत प्रकार के आकार और शीलस्वभावों को धारण करता है। आप्तमीमांसा में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है-“जीव के कामादि भावों की उत्पत्ति अपने-अपने कर्मों के बन्ध के अनुरूप चित्र-विचित्र प्रकार से होती रहती है।"२
इन मुख्य अवस्थाओं का मुख्य निमित्त कारण कर्म है, अर्थात्-ये मुख्य अवस्थाएँ कर्म के कार्य हैं। इन मुख्य अवस्थाओं के रहते जीव की प्रत्येक समय की परिणति भिन्न-भिन्न होती रहती है। इन भिन्न-भिन्न परिणतियों के होने में निमित्त कारण कर्म के सहायक ईषत् कर्म रूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप नोकर्म माने गए हैं। अर्थात्-पूर्वोक्त मुख्य अवस्थाओं (संसारी अशुद्ध अवस्थाओं) में जीव की प्रतिसमंय की परिणति द्रव्य-क्षेत्रादि नोकर्मरूप निमित्त-सापेक्ष होने से बदलती रहती है। नोकर्मरूप ये निमित्त संस्काररूप में आत्मा से सम्बद्ध होते रहते हैं। कालान्तर में तदनुकूल परिणति पैदा करने में सहायता प्रदान करते हैं। जीव की शुद्धता और अशुद्धता इन निमित्तों के सद्भाव- असभाव पर निर्भर है। यह नोकर्म का कार्य है। जब तक जीव इन निमित्तों के संचित होने में स्वयं सहायक होता है और वे निमित्त उसकी प्रतिसमय की अवस्था के होने में सहायक होते हैं, तब तक जीव की अशुद्धता बनी रहती है। जैनदर्शन में जीव की अशुद्धता के कारणभूत इन निमित्तों को 'नोकर्म' कहा गया है।
तात्पर्य यह है कि कर्म संसारी जीव की पूर्वोक्त विभिन्न अवस्थाओं में मुख्य निमित्त अर्थात्-नैमित्तिक हैं, और नोकर्म इन मुख्य अवस्थाओं के रहते १. महाबंधो पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री) से साभार भावांश उद्धृत
पृ. २१ २. "कामादिप्रभवश्चित्रं कर्मबन्धानुरूपतः।" -आप्तमीमांसा (आचार्य समन्तभद्र)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org