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कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप ५३३
द्वेष, ईर्ष्या एवं अज्ञानता आदि के कारण किये जाते हैं। इसलिए ऐसी दुर्भावना, दुर्विचार एवं दुष्कर्म अशुभ कर्म हैं।' शुभत्व और अशुभत्व के निर्णय के आधार
देखना यह है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व के निर्णय का आधार क्या है ? इस विषय में गहराई से सोचने पर इन दोनों के निर्णय के तीन आधार प्रतिफलित होते हैं - (१) कर्ता का आशय, (२) कर्म का अच्छा-बुरा बाह्य रूप तथा (३) उससे सामाजिक जीवन पर पड़ने वाला अच्छा-बुरा प्रभाव। भगवद्गीता एवं बौद्धदर्शन में कर्मों की शुभाशुभता का आधार कर्ता के आशय को माना गया है।
शुभाशुभत्व का मुख्य आधार : गीता में
गीता में बताया गया है कि त्याग, भक्ति, यज्ञ, दान, तप आदि सात्त्विक कर्म भी सात्त्विक ढंग से किये जाएँ तो सात्त्विक हैं, अन्यथा कर्ता के राजस और तामसं आशय से किये जाने पर ये सभी कर्म राजस और तामस कहलाएँगे। गीता का आशय यही प्रतीत होता है कि शुद्ध कर्म तो सात्त्विक भाव से किये जाने वाले यज्ञ, दान, त्याग, तप आदि हैं, परन्तु राजस और तामस भाव से किये जाने पर ये क्रमशः शुभ - अशुभ (पुण्य-पाप) होने से शुभकर्मबन्धक और अशुभकर्मबन्धक हो सकते हैं।
गीता में स्पष्ट कहा गया है कि “यद्यपि यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है वह सत् कही जाती है, परन्तु परमात्मा के अर्थ (फलाकांक्षा तथा अहंकर्तृत्व आदि का त्याग करके) ये कर्म किये जाएँ तभी 'सत्' हो सकते है । " किन्तु “ अश्रद्धा से किये हुए यज्ञ, तप, दान आदि जो कुछ भी कर्म किये जाते हैं, वे सब असत् कहलाते हैं, वे न तो इस लोक के लिए लाभदायक हैं और न परलोक के लिए। "
वहाँ बताया गया है, कि "जो कर्म फल की इच्छा से, अहंकार युक्त होकर बहुत ही परिश्रम से किया जाता है, वह राजस है" और "जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का विचार किये बिना केवल मोह या हठाग्रहवश किया जाता है वह तामस है।" “जो कर्ता आसक्ति (रागादि) से युक्त हैं, कर्मफल का इच्छुक है, लोभवृत्ति से प्रेरित है, दूसरों को कष्ट देने वाला तथा अशुद्धचारी एवं हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस है।" इसी
१. जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश
. २. देखिये - भगवद्गीता अ. १८ श्लो. १७ तथा धम्मपद गा. २४९ में इसका प्रमाण । ३. देखिये - गीता के १७वें अध्याय में वर्णित यज्ञ, दान, तप, श्रद्धा आदि के त्रिविध रूपों का वर्णन ।'
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