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५७० कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
परहितार्थ परार्थ प्रवृत्ति
ऐसा निष्कामकर्मी साधक परहितार्थ, परार्थ, परमार्थ या लोकोपकारार्थ समस्त कार्य अथवा स्व-साधनागत समस्त प्रवृत्ति या पारमार्थिक साधना भी केवल समर्पित या विसर्जित होकर बालक या विनीत शिष्य के समान कर्तव्यबुद्धि से करता है । "
संकीर्ण स्वार्थ: सकामकर्म का; और विस्तीर्ण स्वार्थ निष्कामकर्म का प्रतीक
समग्र को छोड़कर उसके अंगभूत किसी एक 'इदं' के साथ बंधे हुए चित्त से जब कामना केन्द्रित होती है, तब वह स्वयं की तथा अहंकार की तृप्ति के प्रयोजन से होती है, इसलिए वह निपट स्वार्थ कहलाती है । परन्तु समग्र को हस्तगत करने की कामना, अहंकार को पूर्णाहंता प्रदान करने के प्रयोजन से होती है, इसलिए वह (कामना) परमार्थ कहलाती है। इसी प्रकार परोपकार की कामना, दूसरों का हित करने के लिए होती है, इसलिए वह परार्थ कहलाती है। कामना तीनों में समान है, किन्तु निपट स्वार्थरंजित कामना और परमार्थ या परार्थ की गई कामना में रात-दिन का अन्तर है।
सकामकर्म
इस पदार्थ को प्राप्त करने के लिए 'मैं यह काम करूँ' इस प्रकार की कामना से प्रेरित होकर जो काम व्यक्ति करता है, उसमें यह काम मैंने किया - ऐसा अहंकार होता है, अतः उस कार्य में तथा उसके द्वारा प्राप्त फल में उसका स्वामित्व हो जाता है, जबकि जिस कार्य को व्यक्ति केवल दूसरों के हित एवं प्रसन्नता तथा निराकुल आत्म-सुख के लिए करता है, उसमें तथा उसके द्वारा प्राप्त फल में उस व्यक्ति की अहंता - ममता एवं स्वामित्व भावना प्रायः नहीं होती। अपने स्वामी के लिए किये गये कार्य में तथा उससे प्राप्त हानि-लाभ में जैसे मैनेजर की निपट - स्वार्थबुद्धि नहीं होती, वैसे निपटस्वार्थ से अस्पृष्ट होने के कारण परार्थ और परमार्थ दोनों ही प्रकार के कर्मों में फलाकांक्षा, अश्रद्धा, संशय, भ्रान्ति आदि की सम्भावना नहीं रहती, क्योंकि परहितार्थ अथवा लोकोपकारार्थ किये गये सकल कार्य समग्र पारमार्थिक कर्म बालकवत् केवल कर्तृत्वबुद्धि से किये जाते हैं। यद्यपि परमार्थ तथा परार्थ कार्य में शीघ्र सफल होने की इच्छा वाला स्वार्थ रहता है, पर वह फल भोगाकांक्षा वाला निपट स्वार्थ नहीं होता | आध्यात्मिक दृष्टि से वह स्वार्थआत्मार्थ कहलाता है, स्वार्थ नहीं। यही सकांमकर्म और निष्कामकर्म की विभाजक रेखा है।
१. कर्म रहस्य (जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १४१
२. वही, पृ. १४७ ३. वही, पृ. १४७ - १४८
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