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कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप ६१३
लोगा (पिण्ड) पानी में डालने पर चारों ओर से पानी को खींच लेता है। अर्थात् - आत्मा (जीव) उपर्युक्त कारणों (परिणामों) से कर्मवर्गणा के पुद्गलों को अपनी ओर आकृष्ट करके आत्म-सम्बद्ध कर लेता है, इस कारण वही पुद्गलद्रव्य 'कर्म' कहलाता है । '
आत्मा कर्म-परमाणुओं को कैसे आकृष्ट कर लेता है ?
आत्मा कर्म-परमाणुओं को अपनी ओर कैसे आकृष्ट कर लेता है ? इस सम्बन्ध में कर्मविज्ञानवेत्ता विभिन्न तर्क देते रहे हैं- “जैसे कड़ाही के अंदर खौलते हुए घी में डाली हुई पूड़ी घी को खींच लेती है, अपने में जज्ब कर लेती है। अथवा जिस तरह चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है, तथा जैसे कपड़ा पानी को सोख लेता है; इसी तरह यह जीव (रागद्वेषादियुक्त) संकल्प विकल्पों में पहुँचकर आस-पास के अनन्तानन्त (कर्म-पुद्गल) परमाणुओं को खींच लेता है। इस प्रकार जीव के साथ ये कर्मपुद्गल - परमाणु सम्बद्ध हो जाते हैं।"
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आत्मा में अपने पार्श्ववर्ती अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल - परमाणुओं को आकर्षित करने की शक्ति कैसे आ जाती है ? इस सम्बन्ध में बताया गया है। ........ आज के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि वृक्ष से टूटा हुआ फल ऊपर आकाश की ओर न जाकर जो भूमि पर गिरता है, इसका कारण केवल भूमि में अवस्थित आकर्षण शक्ति ही समझना चाहिए। भूमि में स्वभाव से ही यह विशेषता पाई जाती है कि वह प्रत्येक वस्तु को अपनी ओर खींचती है, ऊपर की ओर नहीं जाने देती। जैसे वैज्ञानिक भूमि में आकर्षण शक्ति का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, वैसे ही जैनाचार्य (रागादियुक्त) संकल्प-विकल्पों की वाटिका में विहरण कर रही आत्मा में अपने पार्श्ववर्ती अनन्तानन्त परमाणुओं को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता स्वीकार करते हैं। " २ चर्मचक्षुओं से अदृश्य कार्मणवर्गणा का जीव द्वारा ग्रहण करना भी कर्म है
“जैनदर्शन के मन्तव्यांनुसार कार्मण वर्गणा (कर्म-परणाणुओं का सजातीय समूह) एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज (पुद्गल-स्कन्ध परमाणुसमुदाय) होती है, जिसे इन्द्रियाँ सूक्ष्मदर्शक यंत्र के द्वारा भी नहीं जान सकती, सर्वज्ञ या परम अवधिज्ञानी योगी ही उसे जान देख सकते हैं।" जीव के द्वारा जब वह (कर्मरज ग्रहण की जाती है, तब उसे कर्म कहते हैं ।
१. इस गाथा पर देखिये, अभिधान राजेन्द्रकोष में 'कम्म' शब्द की आ. देवेन्द्रसूरिकृत व्याख्या, पृ. २४५
२. (क) ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनि जी) से पृ. २०
(ख) वही पृ. २१
३. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ प्रथम गाथा की व्याख्या (पं. सुखलालजी) से पृ. २
(ख) 'ज्ञान का अमृत' से पृ. २१
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