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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
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पूर्वोक्त तीन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में बंधक कर्म के चार मुख्य लक्षण
इन्हीं तीन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में जैन कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने बन्धक कर्म के विभिन्न दृष्टियों से परिष्कृत लक्षण दिये हैं। उनमें चार परिष्कृत लक्षण मुख्य हैं, जिनसे विवक्षित कर्म का सर्वांगीण परिष्कृत स्वरूप समझ में आ सकता है। प्रथम लक्षण
. इस दृष्टि से आचार्य देवेन्द्रसूरि ने प्रथम कर्मग्रन्थ में जो कर्म का लक्षण दिया है, उसे हम प्रथम लक्षण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं
"कीरइ जिएण हेउहि तो भण्णए कम्म ।"
अर्थात्-जिस कारण (सांसारिक) जीव के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (मन, वचन, काय की प्रकृति) इन हेतुओं = कारणों से, (कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य अपने आत्मप्रदेशों के साथ बद्ध-सम्बद्ध) किये जाते हैं। इसलिए वह आत्म-सम्बद्ध (विजातीय) पुद्गलद्रव्य कर्म कहलाता है। संक्षेप में, मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा (मन, वचन, काया से) जो किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं।
भावार्थ यह है कि राग-द्वेष-कषायादि से युक्त इस संसारी जीव में प्रतिसमय मन वचन काया से परिस्पन्द रूप जो क्रिया होती है, उसे सामान्यतया मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांच रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं। इनके निमित्त से आत्मा के प्रति आकृष्ट होकर अचेतन (पुद्गल) द्रव्य आता है और रागद्वेष का निमित्त पाकर आत्म-प्रदेशों के साथ श्लिष्ट सम्बद्ध हो जाता है। समय पाकर वह सुख-दुःख का फल देने लगता है, उसे ही कर्म कहा जाता है।' . 'कीरइ' पद की व्याख्या
इस गाथा के 'कीरई जिएण हेउहि' इन तीनों की व्याख्या करते हुए आचार्य देवेन्द्रसूरि लिखते हैं
__ "अंजनचूर्ण से परिपूर्ण डिब्बे के समान समग्र लोक सूक्ष्म और बादर कर्मपुद्गल-परमाणुओं से ठसाठस भरा हुआ है। ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ कर्म-पुद्गल परमाणु न हों। किन्तु ये समस्त कर्म-पुद्गल-परमाणु कर्म नहीं कहलाते। इनमें कर्म बनने की योग्यता अवश्य है। अनादिकालीन कर्ममलों से युक्त जीव जब रागादि कषायों से संतप्त होकर मन-वचनकाया से कोई क्रिया करता है, तब कार्मण-वर्गणा के पुद्गल-द्रव्य आत्मा की ओर उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं, जिस प्रकार अग्नि से संतप्त लोहे का १. कर्मग्रन्थ प्रथम गाथा-१
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