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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट स्वरूप (३)
नहीं है। कर्म के कारण ही प्राणी को अनेक गतियों, योनियों और रूपों में जन्म-मरणादि दुःख उठाने पड़ते हैं। विविध कुगतियों और कुयोनियों में विविध दुर्लभबोधि रूपों में भटककर आत्मा की अखण्ड शान्ति-आकुलतारहित सुखशान्ति के परिदर्शन कर्म के कारण ही तो सम्भव नहीं होते। अतएव उस निराकुल अखण्ड शान्ति की जिन्हें पिपासा एवं जिज्ञासा है, उन्हें कर्म के इस परिष्कृत स्वरूप का जानना बहुत आवश्यक है। कर्म करना सहेतुक है, वह जीव का स्वभाव नहीं ।
वस्तुतः कर्म करना आत्मा (जीव) का स्वभाव नहीं है। अगर कर्म करना, यानी कर्म-बन्ध करना जीव का स्वभाव होता तो अयोगी केवली भगवन्तों और सिद्ध भगवन्तों के साथ भी कर्म लगे होते। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव कर्म का बन्ध नहीं करता। अयोगी केवली और सिद्ध भगवन्त तो कर्मों से सर्वथा मुक्त होते हैं, वे कर्मों का बंधन नहीं करते। सयोगी केवली, वीतराग अर्हत् भगवान् के भी ईर्यापथिक क्रिया के कारण नये कर्म आते जरूर हैं, बंध केवल स्पृष्टरूप प्रदेशरूप होता है किन्तु वह तुरंत ही छूट जाता है। इससे सिद्ध होता है कर्म सहेतुक होता है, अहेतुक नहीं।' कर्म के परिष्कृत स्वरूप में इच्छाकृत बंधककर्मों का ही समावेश
___ आशय यह है कि जो कर्म सहज होते हैं-श्वासोच्छ्वास, रक्तसंचार, पाचन क्रिया आदि वे अनिच्छाकृत एवं स्वतः होते हैं। इच्छाकृत कर्मों में भी जिन कर्मों के साथ कषाय या रागद्वेषादि नहीं होते वे कर्म भी बन्धकर्ता नहीं होते। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप का निष्काम भाव से सम्यक् आचरण करे तो वह अप्रमत्त भाव से किया हुआ कर्म भी बन्धक न होकर संवर-निर्जराकारक (कर्म-निरोधक तथा कर्मक्षयकारक) होता है। यहाँ इस प्रकार के कर्मों से प्रयोजन नहीं है।
यहाँ प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक आत्मा तथा प्रत्येक प्रयोजन या निष्प्रयोजन अथवा प्रत्येक कारण या अकारण से किये हुए कर्म को बन्धक कर्म की कोटि में नहीं बताया गया है। यहाँ कर्म का जो परिष्कृत स्वरूप बताया जाएगा, उसमें अमुक संसारी आत्मा के द्वारा अमुक कारणों से, इच्छाकृत विशिष्ट क्रिया के बंधकारक कर्मों का ही परिगणन किया जाएगा। कर्म के इस सर्वांगीण परिष्कृत स्वरूप में सहेतुक कर्मों का ही परिष्कृत लक्षण बताया जाएगा। जो इस प्रकार की बंधक क्रिया, इस प्रकार १. जिनवाणी कर्म-सिद्धान्त विशेषांक के कर्मों की धूप-छाह' लेख से, पृ९ २. "कर्मों की धूप-छांह" लेख से भावांश उद्धृत पृ. ९
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