Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 639
________________ कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप ६१७ कर्म के लक्षण में क्रिया और क्रिया के हेतु-दोनों का समावेश वस्तुतः आचार्य देवेन्द्रसूरिजी रचित कर्मग्रन्थ एवं परमात्मप्रकाश आदि कर्मविज्ञान के व्याख्या-ग्रन्थों में कर्म की सर्वांगीण परिभाषा में जीव की कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया (योग) और क्रिया के हेतुमिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों, इन दोनों को कर्म के सर्वांगीण परिष्कृत स्वरूप में समाविष्ट किया है। .. तात्पर्य यह है कि जैनकर्मविज्ञान में कर्म का केवल क्रियापरक अर्थ ही अभीष्ट नहीं है, अपितु क्रिया के हेतु (रागद्वेष, कषायादि) पर भी विचार किया गया है।' इसी दृष्टि से प्रवचनसार (टीका) में क्रिया और कर्मपुद्गल दोनों की कर्मसंज्ञा बताते हुए कहा है-वस्तुतः आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से (रागद्वेषादियुक्त) क्रिया कर्म है, और उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त (कर्मवर्गणा के) पुद्गल भी कर्म ही है। इस अपेक्षा से कर्म के अन्तर्गत दोंनों तत्व आ जाते हैं। राग-द्वेष, कषाय आदि मनोभावों से युक्त क्रिया और कर्म-पुद्गल। कर्म-पुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादियुक्त त्रिविध क्रिया है। क्रिया के अभाव में कर्मपुद्गगलों में कर्मत्व का अभाव होने से उसकी कार्यभूत (क्रियाफलरूप) मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है।२ ।। यहाँ कर्मपुद्गल वे जड़ (कम) परमाणु हैं, जिन्हें शरीरविज्ञान शरीर के रासायनिक तत्व कहता है। ये कर्मपरमाणु ही प्राणी की कायिक, वाचिक, मानसिक किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे अपना सम्बन्ध स्थापित करके, कार्मणशरीर की रचना करते हैं। (विपाक) समयविशेष के पकने पर वे ही कर्म अपने अनुभाग के अनुरूप फल के रूप में विशेष प्रकार का फलभोग (फल का वेदन) करा कर अलग हो जाते हैं। ___ जैनकर्मविज्ञान की दृष्टि से कर्म का स्वभाव आत्मा के स्वभाव को पराभूत करना है। कर्म आत्मा (जीव) को परतंत्र करता है, उसकी शक्तियों को प्रभावित और कुण्ठित करता है। यह आत्मा या चेतना की शुद्धता को विकृत एवं आवृत करता है।' १. (क) कर्मविपाक (कर्मग्रन्थ-प्रथम) गा. १ की व्याख्या से (पं. सुखलाल जी) पृ. १ . (ख) जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश पृ. ११ ।। २.. "क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात् कर्म, तनिमित्तप्राप्त परिणामः पुद्गलोऽपि कर्म ।" . -प्रवचनसार (त. प्र. टीका) ११७ ३. जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश ४. जीवं परतंत्रीकुर्वन्नि, स परतंत्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि । - आप्तपरीक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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