________________
६१६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) (निर्वाण प्राप्त-मुक्त) भी जीव है। जीव के अतिरिक्त उसके सत्त्व, प्राणी, आत्मा इत्यादि पर्यायवाचक शब्द हैं। ऐसा जीव ही कर्म का कर्ता है। ___भगवती सूत्र में भी कर्म को चेतनाकृत बताया है, अचेतनाकृत नहीं। 'हेउहि' की व्याख्या
'हेउहि' की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री देवेन्द्र सूरि जी कहते हैंजीव मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग रूप सामान्य कारणों से तथा प्रत्यनीकता, निह्नव, प्रद्वेष, उपघात, अन्तराय एवं अत्याशातना इत्यादि विशेष कारणों से (जो आगे यथास्थान बताये जाएँगे) पूर्वोक्त विशेषणयुक्त जीव के द्वारा जो (कार्य) किया जाता है, उसे कर्म कहा जाता है। कर्म का दूसरा परिष्कृत लक्षण
कर्म का दूसरा लक्षण आप्तपरीक्षा तथा भगवती आराधना की टीका में किया गया है-जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं-उपार्जित होते हैं, वे कर्म हैं।
__ इसकी पूर्व लक्षण से मिलती-जुलती व्याख्या समझनी चाहिए। कर्म का तृतीय परिष्कृत लक्षण
कर्म का तीसरा परिष्कृत लक्षण 'परमात्मप्रकाश' में दिया गया हैविसय-कसायहि रंगियह, जे अणुया लग्गति। जीव-पएसेहिं मोहियह, ते जिण कम्म भणति॥
इसका भावार्थ यह है कि "विषय-कषायों से रंजित और मोहित आत्म-प्रदेशों के साथ जो अणु (कर्म-परमाणु) संलग्न-संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन्हें जिनेन्द्र भगवान् कर्म कहते हैं।"
इसका फलितार्थ यह है कि पंचेन्द्रिय एवं मन के विषयों के प्रति आत्मा की राग-द्वेषात्मक तथा कषायात्मक क्रिया से आकाश-प्रदेशों में विद्यमान कर्म-वर्गणा के अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणु-पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संश्लिष्ट(बद्ध) हो जाते हैं, चिपक जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं।
१. अभिधान राजेन्द्रकोष के अन्तर्गत 'कम्म' शब्द की व्याख्या से पृ. २४५ २. वही, पृ. २४५ ३. जीवेन वा मिथ्यादर्शनादि परिणामैः क्रियते इति कर्म ।
- आप्तपरीक्षा (टी.) २९६, भगवती आराधना (टी.) २०/९/८० ४. परमात्म प्रकाश १/१६ ५. कर्मग्रन्थ भा. १ गा. १ की व्याख्या (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org