Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 636
________________ ६१४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . . कर्म का उभयविध लक्षण समयसार में इसी लक्षण को परिष्कृत करते हुए कहा गया है-जीव के परिणामों का निमित्त (योग और कषाय के कारण) पाकर आत्मा में (आकर्षित होकर) स्थित पुद्गलों का कर्मरूप में परिणमन होता है। इसी प्रकार पौद्गलिक कर्म के निमित्त से (आत्मा में कम्पनरूप क्रिया के कारण) जीव का भी परिणमन होता है। जिन संकल्प-विकल्पों (रागादि परिणामों) के आधार पर यह जीव परमाणुओं को अपनी ओर खींचता है, उन्हें भावकर्म कहते हैं और जो कर्म-परमाणु खिंचकर आत्मा के साथ चिपट जाते हैं, वे ही कर्मपरमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं।' आत्मा के पार्श्ववर्ती कर्मपरमाणु आत्मा से कैसे सम्बद्ध हो जाते हैं? प्रश्न यह है कि संकल्प-विकल्पों के आधार पर आत्म-प्रदेशों में कम्पन होने से आत्मा के पार्श्ववर्ती अनन्तानन्त कर्मपरमाणु आत्मा (आत्म प्रदेशों) से कैसे सम्बन्धित हो (जुड़) जाते हैं ? - इसका समाधान पं. सुखलालजी के शब्दों में देखिये-"शरीर में तेल लगाकर कोई धूलि में लोटे तो धूलि उसके शरीर में चिपट जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब परिस्पन्द होता है, अर्थात्-हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश हैं, वहीं के, अनन्त-अनन्त कर्म-योग्य-पुद्गल-परमाणु, जीव के एक-एक प्रदेश के साथ बँध जाते हैं। दूध और पानी का तथा आग का और लोहे के गोले का जैसे सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव और कर्म-पुद्गगल, जीव के एक-एक प्रदेश के साथ बंध जाते हैं। दूध और पानी का तथा आग का और लोहे के लोगे का जैसे सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव और कर्म-पुद्गल का परस्पर सम्बन्ध (बन्ध) होता है।"२ आत्म-प्रदेश (जीव) और कर्म-परमाणु के सम्बन्ध के विषय में पं. ज्ञानमुनिजी का मन्तव्य है-“कुछ विचारकों का कहना है-'आत्मप्रदेश और कर्म-परमाणु दूध और पानी की तरह मिलते हैं। कुछ विचारक लोहे और अग्नि की भाँति इनका मिलाप मानते हैं।' वस्तुस्थिति क्या है ? यह १. (क) जीव-परिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गल णिम्मित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।। -समयसार गा. ८० (ख) क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात् कर्म । तन्निमित्त प्राप्त परिणामः पुद्गलोऽपि कर्म। - प्रवचन सार टीका पृ. १६५ (ग) ज्ञान का अमृत (प. ज्ञानमुनिजी) से पृ. २१ २. कर्मग्रन्थ प्रथम गा. १ (पं. सुखलाल जी) की व्याख्या से पृ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644