Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 631
________________ कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप ६०९ कर्मों से मुक्त हो सकता है। जब साधक को आत्मा और अनात्मा (चेतन और जड़=स्व-भाव और परभाव) की भिन्नता का भेदविज्ञान हो जाता है, अर्थात् जन्म-मरणरूप संसार से छूटने का जब समय आता है, तब वह शीघ्र ही तप, संयम और ज्ञान रूप अग्नि के बल से समग्र कर्ममल को जलाकर शुद्ध स्वर्ण सम निर्मल - निष्कलंक हो जाता है। अर्थात्-कर्मललिप्त आत्मा शुद्ध परमात्मा, परब्रह्म अथवा परमेश्वर हो जाता है। १ आद्य शंकराचार्य इस स्थिति में पहुँचे हुए जीव को परब्रह्म रूप से परिचित कराते हुए कहते हैं- “(सम्यक् ) ज्ञान बल से पहले बंधे हुए कर्मों को गला दो, (जैन परिभाषा में पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा कर दो) तथा नवीन (आते हुए) कर्मों का बन्धन मत होने दो (आस्रवनिरोधरूप संवर करो) और जो प्रारब्ध कर्म हों, उन्हें (समभाव से) भोग कर (उनकी उदीरणा करके) क्षीण कर दो। इसके पश्चात् परब्रह्म परमात्मा रूप से अनन्तकाल तक बने रहो । कर्म के परिष्कृत स्वरूप का समझना आवश्यक है; क्यों और कैसे' ? यद्यपि आत्मा और कर्म का अपना-अपना स्वतंत्र स्वरूप एवं अस्तित्व है, तथापि संसारी आत्मा और कर्म का परस्पर सम्बन्ध अनादि काल से है । इन दोनों का यह सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि कदापि विच्छिन्न न हो सके, और न ही यह सम्बन्ध धन और धनी जैसा तात्कालिक है, अपितु वह सम्बन्ध स्वर्ण और किट्ट- कालिमा की तरह अनादिकालीन है, विच्छेद्य भी है और. जीव के प्रमादवश श्लेष्य भी है। • जिस प्रकार शत्रु का स्वरूप भलीभांति समझ में नहीं आता, तब तक उस पर विजय पाना सम्भव नहीं होता, इसी प्रकार आत्मा के कट्टर शत्रु का भी जब तक स्वरूप समझ में नहीं आता, तब तक उस पर विजय पाना, उससे सम्बन्ध विच्छेद करना तथा जब तक वीतरागता = जीवनमुक्ति प्राप्त न हो जाए, तब तक केवल शुभ और शुद्ध कर्मों (अकर्मों) से सम्बन्ध करना कथमपि सम्भव नहीं है। कर्म से बढ़कर आत्मा का कोई शत्रु इस संसार में १.. (क) प्रथम कर्म ग्रन्थ में (संपादक - पं. सुखलालजी) लिखित व्याख्या से पृ. ३ (ख) यद्यपि कर्मों के आस्रव और बन्ध की, तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष की, एवं उनके विविध पृथक्-पृथक् कारणों की, तथा पुण्य-पाप एवं कर्मफल की विस्तृत चर्चा यथक्रम से आगे के खण्डों में की जाएगी। इस खण्ड में तो कर्म के - विभिन्न रूपों और स्वरूपों की झांकी दी गई है। २. “प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नऽप्युक्तेः श्लिष्यताम् । प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥” (- प्रथम कर्मग्रन्थ से) पृ.३ ३. कर्मग्रन्थ प्रथम की प्रथम गाथा की व्याख्या (पं. सुखलालजी) से पृ. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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