Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 615
________________ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५९३ "मेरे द्वारा किये हुए क्रियमाण कर्म के फलस्वरूप मेरे पाप के नाश के लिये मुझे शीघ्र ही कठोर दण्ड मिले, जिससे भविष्य में मैं पुनः ऐसा अधम दुष्कृत्य न कर सकूँ और न ही मेरे उदाहरण को लेकर कोई शासक ऐसा नीच कृत्य करे।" "और मुझे अपने अपराध के बदले में ऐसी सजा मिले कि उस ब्राह्मण ऋषि की कोपाग्नि में मेरा समग्र राज्य, बल (सैन्य), समृद्धि, कोश (राज्य का खजाना) आदि तत्काल जल कर खाक हो जाए। ताकि मुझे ब्राह्मण, देवता और गाय आदि के प्रति ऐसी कुबुद्धि कभी न सूझे।"१ इस प्रकार राजा परीक्षित स्वयं अपने विरुद्ध अपराध का अभियोग लगाकर उसकी सजा (शिक्षा या दण्ड) की माँग कर रहा है। उसने कर्म के फल से छूटने के लिए किसी प्रकार की सिफारिश का, सत्ता के अहंकार का, अपने रक्तसम्बन्ध का कथमपि उपयोग नहीं किया। क्योंकि वह जानता था कि अगर इनका उपयोम किया जाएगा तो भी प्रारब्धकोटि का कर्म फलप्रदान किये बिना छोड़ेगा नहीं। उक्त क्रियमाण अशुभ कर्म के फलस्वरूप तक्षक नाग (सप) के काटने से मृत्यु पाने का प्रारब्ध राजा परीक्षित के लिए निर्मित हुआ। परन्तु इस कटुफलभोग से छटकने के लिए उसने किसी प्रकार की सिफारिश का अथवा अपनी सत्ता का जरा भी उपयोग करने का प्रयास नहीं किया। .उसने उस समय के शक्तिशाली तथा भगवान् के रूप में मान्य कर्मयोगी कृष्ण से भी प्रार्थना नहीं की कि “भगवान् कृष्ण! मेरा दादा अर्जुन और आप (श्री कृष्ण) दोनों सगे मामा-भुआ के पुत्र-भाई थे, तथा आप दोनों साला-बहनोई भी होते थे। उस दृष्टि से आप मेरे अत्यन्त निकट सम्बन्धी होते हैं। तथा मेरा दादा अर्जुन भी आपका परमप्रिय भक्त था। उसके रथ के कुशल सारथि भी आप बने थे। और स्वयं मेरी भी रक्षा आपने गर्भवास में की थी। अतः सर्वशक्तिमान हैं। इसलिए आपकी सिफारिश से तथा प्रभाव से मुझे अपने अपराध की सजा (शिक्षा) न मिले, ऐसी कृपा करो। फिर जिंदगी में मेरा यह पहला ही अपराध है। भविष्य में मैं ऐसा अपराध कदापि नहीं करूँगा, ऐसी शपथ लेता हूँ। मुझे कम से कम इतने समय लिए इस अपराध की सजा से बरी कर दो तो, आप कहेंगे उस मद में उतनी अपार धन राशि मैं व्यय कर दूंगा, आप प्रसन्न हों, उतना धर्मादा मैं निकाल दूँगा।" १. ध्रुवं ततो मे कृतदेव-हेलनात्, दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात्। तदस्तु कामं त्वधविष्कृताय मे यथा न कुर्या पुनरेवमद्धा। अद्यैव राज्यं बल मृद्धकोशं प्रकोपिता-ब्रह्म-फलानलोमे। दहतु ह्यभद्रस्य पुनर्नमेऽभूत् पापीयसी धीः द्विज-देव-गोभ्यः। -महाभारत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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