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कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ६०५
जैसे कर्मयोग द्वारा क्रियमाण कर्मों को, और भक्तियोग द्वारा प्रारब्ध कर्मों को नियंत्रित किया जा सकता है, उसी प्रकार ज्ञानयोग द्वारा अनादिकाल से अनेक जन्म-जन्मान्तरों से संचित सर्व कर्मों को भस्म किया जा सकता है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म एवं भक्तियोग से जीवमात्र संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध कर्मों से मुक्त होकर निश्चित ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ज्ञानाग्नि से संचित आदि सबकर्म नष्ट हो जाते हैं
भगवद्गीता में इस विषय में स्पष्ट कहा गया है-जिस प्रकार अग्नि में डाली हुई समस्त प्रकार की मोटी-पतली, सूखी, गीली, लम्बी-छोटी लकड़ियाँ (ईंधन) भस्म हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि में डाले हुए सभी प्रकार के शुभ-अशुभ क्रियमाण, प्रारब्ध तथा संचित सभी कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं।
ज्ञानाग्नि प्रकट करने का सबसे आसान तरीका यह है कि जीव को अपने स्व-स्वरूप (आत्म-स्वभाव) का यथार्थज्ञान होना ही ज्ञान का प्रकटीकरण है। परन्तु जीव को अपने स्वरूप का यथार्थ भान होना ही अत्यन्त कठिन है। अज्ञान, मोह, राग-द्वेष आदि ऐसे विकार हैं, जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आवृत किये हुए हैं। आत्मा के शुद्धस्वरूप का ज्ञान, उस पर पूर्णश्रद्धा तथा उक्त शुद्धस्वरूप में रमण ये ही निश्चयदृष्टि से सम्यरज्ञान-दर्शन-चारित्र हैं। ये ही वस्तुतः आत्मधर्म हैं, मोक्षमार्ग हैं; कर्मों से सर्वथा मुक्ति दिलाने वाले हैं। वस्तुतः ज्ञान ही आत्मा का मौलिक गुण है, आत्मा ज्ञानमय है। दर्शन और चारित्र भी निश्चयदृष्टि से एक प्रकार के ज्ञान ही हैं।
इसी दृष्टि से ज्ञानरूपी अनल प्रकट हो जाए, आत्मा में प्रज्वलितजाग्रत एवं पूर्णतया प्रकाशित हो जाय तो सारे कर्म, कर्म के स्रोत, कर्मबन्ध के कारण एवं पूर्वकृत कर्म का संचय सभी नष्ट-भ्रष्ट एवं भस्मसात् हो जाते हैं।
जिस प्रकार स्वप्नावस्था में प्राप्त सुख-दुःख जाग्रत अवस्था में मिथ्या हो जाते हैं, इसी प्रकार जाग्रत अवस्था में प्राप्त सुख-दुःखादि भी अज्ञानी को सत्य प्रतिभासित होते हैं, किन्तु ज्ञानावस्था में स्वप्न और जाग्रत
अवस्था में प्रतिभासित सत्य मिथ्या हो जाता है। कई बार भ्रमवश .. १. 'कर्मनो सिद्धान्त' से भावांश उद्धृत पृ. ५८ २. "यथैधासि समिद्धोऽग्निः भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन!,
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।।" -गीता अ.४ श्लो. ३७
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