Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 625
________________ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ६०३ अपने प्रारब्ध का निर्माण अपने हाथ में इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है"Man is the architectof his own fortune "मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं ही है।" इसे ही वैदिक परम्परा के शब्दों में कहें तो-मनुष्य अपने प्रारब्ध का निर्माण अपने वर्तमान के पुरुषार्थ से स्वयमेव कर सकता है। अतः सफल जीवनयात्रा के लिए स्वयं सत्पुरुषार्थ करना ही अपने सद्भाग्य, सत्प्रारब्ध, पुण्य या सुखरूप शुभफल का निर्माण करना है। और शुभप्रारब्ध के रूप में प्राप्त सुख-साधनों या अच्छे संयोगों का भी धर्म-मोक्ष की प्राप्ति के लिए विवेक-बुद्धिपूर्वक उपयोग एवं सत्पुरुषार्थ करना चाहिए। मनोऽनुकूल प्रारब्ध कर्म के लिए क्रियमाण में सावधान रहो निष्कर्ष यह है कि प्रारब्ध मनोऽनुकूल प्राप्त हो, सुखरूप फल मिले, इसके लिए सर्वप्रथम ती क्रियमाण कर्म करते समय खूब विचार और विवेक करना चाहिए। मानलो, पूर्वजन्म में या इस जन्म में अज्ञानतावश या लाचारीवश कोई भी दुष्कर्म हो गया है तो उसका फल प्राप्त हो, उससे पूर्व ही, यानी प्रारब्ध के रूप में वह कर्म फल देने के लिए उद्यत हो (उदय में आए), उससे पूर्व ही सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप की आराधना-साधना बहुत श्रद्धा-विनय-विवेकपूर्वक करनी चाहिए। क्रियमाण कर्म पापरूप या अशुभ हो गया हो तो भी यदि मनुष्य उसके लिए आलोचना, निन्दना (आत्म-निन्दन, पश्चात्ताप), गर्हणा (गुरु या महान् के समक्ष सरलता से प्रकटीकरण), प्रायश्चित्त (तप, त्याग, व्युत्सर्ग आदि के रूप में), विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, धर्म-शुक्ल ध्यान, अनुप्रेक्षा एवं व्रत-नियमादि का आचरण करे तो उसका प्रारब्ध फल देने से पूर्व शुभ हो सकता है। यही संचित (सत्ता में पड़े हुए) अशुभ कर्मों को शुभ या शुद्धरूप में बदलने की चाबी है। फिर भी यदि पूर्वकृत क्रियमाण कर्म, जो अब तक संचित.थे, प्रारब्धरूप में आकर दुःखरूप फल प्रदान करने लगें तो उन्हें समभाव से, अनुद्वेगपूर्वक, ज्ञानयोग द्वारा भोग लेने से उन कर्मों से मनुष्य मुक्त हो सकता है। संचित कर्मों से छुटकारा कैसे प्राप्त हो ? __ भगवद्गीता में बताया गया है कि कर्मयोग द्वारा क्रियमाण कर्मों पर नियंत्रण किया जा सकता है, अथवा उनसे छुटकारा भी पाया जा सकता है, तथैव भक्तियोग (समर्पण-योग) द्वारा प्रारब्धकर्म भोगकर उनसे छुटकारा पाया जा सकता है। परन्तु संचित (सत्ता में पड़े हुए) कर्मों से कैसे छूटा जा सकता है ? यह गम्भीर प्रश्न है-मुमुक्षु साधक के सामने। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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