Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 624
________________ ६०२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होने का तथा विधुर होने पर विधुर होने की परिस्थिति का लाभ उठाकर अनायास ही मोक्षमार्ग पर तीव्रगति से प्रयाण करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। संक्षेप में, प्रारब्धवशात् शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि जैसा भी, जो कुछ भी प्राप्त हो, अथवा न हो, तो वैसी परिस्थिति का लाभ उठाकर मोक्षमार्ग की साधना करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।' प्रत्येक परिस्थिति में संतोषपूर्वक पुरुषार्थ करो। एक श्लोक में प्रत्येक परिस्थिति में संतोषपूर्वक सत् पुरुषार्थ करने के . . लिए कहा गया है-"दूसरों को संतप्त एवं दुःखित किये बिना, नीच मनुष्यों की खुशामद किये वगैर तथा अपनी आत्मा को किसी प्रकार का क्लेश= मनस्ताप कराये बिना, प्रारब्धवशात् जो कुछ भी थोड़ा-बहुत मिले, उसी में संतोष करके सतत सत्पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।"२ अर्थ और काम प्रारब्ध पर छोड़ो, धर्म, मोक्ष में पुरुषार्थ करो __ भारतीय संस्कृति में मानव-जीवन के लिए चार पुरुषार्थ बताए हैं- : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ऋषि-महर्षियों ने धर्म-पुरुषार्थ से प्राप्त अर्थ (जीवन जीने के साधन-समूह) का विवेक-बुद्धिपूर्वक उपयोगरूप-पुरुषार्थ मोक्षमार्ग में करना चाहिए, यही नीति बताई है। अर्थात् अर्थ और काम प्रारब्ध पर छोड़ देना चाहिए, उनके लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं, जिनके लिए मनुष्य को सतत जाग्रत रहकर. पुरुषार्थ (कम) करना चाहिए वे हैं-धर्म और मोक्ष। किन्तु वर्तमानयुग में अर्थ और काम को प्रारब्ध पर छोड़ देने के बदले मानव उनके लिए ही प्रायः अहर्निश अधिकाधिक पुरुषार्थ करता है। और धर्म एवं मोक्ष को प्रारब्ध पर छोड़ देता है जिसके कारण उसके क्रियमाण कर्म से जो प्रारब्ध निर्मित होता है, वह दुःख, विपत्ति और संकट देने वाला बनता है। सच्चा शुभ क्रियमाण पुरुषार्थ (कम) ही प्रारब्ध बनता है वस्तुतः देखा जाए तो मनुष्य आज जो क्रियमाण कर्म (पुरुषाथ) करता है, वही 'संचित' रूप में जमा होता है, और कालान्तर में उसी का परिपाक होने पर वह 'प्रारब्ध' बनता है। इसलिए सच्चे माने में तो पुरुषार्थ ही कालान्तर में प्रारब्ध बनता है। १. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से भावांश उद्धृत पृ. २३ २. "अकृत्वा पर-सन्तापं अगत्वा खलनम्रताम्। अक्लेशयित्वा चात्मानं यत्स्वल्पमपि तद्बहु॥" ३. 'कर्मनो सिद्धान्त' से भावांश उद्धृत पृ. २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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