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५९८ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
होंगे। इसलिए कर्म के अटल नियम-कानून पर से श्रद्धा को डगमगाकर अधर्म या पाप का आचरण करना कथमपि हितावह नहीं है । " त्रिविध कालकृत कर्म को समझाने हेतु दृष्टान्त
श्री हीराभाई ठक्कर ने क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कर्म को सरलता से समझाने के लिए एक रूपक दिया है - गाँवों में अनाज भर कर संग्रह करने के लिए बड़ी-बड़ी कोठियाँ होती हैं, उनमें अनाज अन्दर डाला जाता है। कोठी के निचले भाग में एक छेद रखा जाता है, उसके द्वारा कोठी में से जरूरत के मुताबिक अनाज निकाला जाता है।
मानलो, तुम्हारी कोठी में गेहूँ भरा हुआ है और मेरी कोठी में भरा हुआ है - कोद्रवधान्य । यदि तुम फिलहाल अपनी कोठी में ऊपर कोद्रव डालो तो भी कोठी के निचले छिद्र में से गेहूँ ही निकलेगा और मैं यदि फिलहाल अपनी कोठी में ऊपर से गेहूँ डालूँ तो भी मेरी कोठी के निचले छिद्र में से कोद्रव ही निकलेगा; क्योंकि निचले भाग में भरे हुए कोद्रव पूर्णतया खत्म नहीं हुए हैं। परन्तु मुझे यह देखकर घबराना नहीं चाहिए कि मैं वर्तमान में अच्छा धान्य डाल रहा हूँ, फिर बुरा धान्य क्यों निकल रहा है ?
कारण स्पष्ट हैं, कोठी में पहले का डाला हुआ बुरा धान्य जब तक पूरा खत्म नहीं होगा, तब तक उसमें बाद में डाला हुआ अच्छा धान्य कहाँ से निकलेगा ? परन्तु मुझे यह जानकर प्रसन्नता होनी चाहिए कि जब मेरी कोठी में पहले के संचित कोद्रव धान्य समाप्त हो जाएगा, तब मेरे द्वारा वर्तमान में डाले हुए गेहूँ के आने की शुरुआत होगी ही । और जब तुम्हारी कोठी में पहले के संचित गेहूँ खत्म हो जाएँगे, तब बाद में तुम्हें कोद्रव खाने का वक्त आएगा ही यह निश्चित है। अतः जब तुम कोद्रव खाओगे, तब मैं गेहूँ खाऊँगा ।
यही बात कर्म के सम्बन्ध में कही जा सकती है। जो पापकर्मकारी व्यक्ति वर्तमान में सुख भोग कर रहा है, वह पुण्य समाप्त होते ही वर्तमान पाप के फलस्वरूप दुःखभोग करने लगेगा; और जो पुण्यकर्मकारी व्यक्ति वर्तमान में दुःखभोग कर रहा है, वह पूर्वकृत पाप के समाप्त होते ही वर्तमान पुण्य के फलस्वरूप सुखभोग करने लगेगा। अतः धैर्यपूर्वक कर्म के अटल कानून पर विश्वास रखना चाहिए।
मान लो, एक बैंक मैनेजर आपका निकट का सम्बन्धी है। उसके साथ आपका बहुत ही मधुर सम्बन्ध है । फिर भी उस बैंक में आपके
१. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से भावांश उद्धृत, पृ. १३-१४
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