________________
कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५८७
फल देकर शान्त हो गए। चौथे दिन फिर दूसरे ८० कर्म संचितरूप में जमा हो गए । यो घटाबढ़ी करते-करते मानलो, एक सप्ताह के अन्त में ३०० और महीने के अन्त में ११०० तथा वर्ष के अन्त में १४000 कर्म संचितरूप में जमा हो गए। इस प्रकार जमा होते-होते इस जीवन के अन्त तक मानो ८ लाख कर्म संचित हो गए, फिर दूसरे जन्म के अन्त में इनके अतिरिक्त ७ लाख कर्म और जमा हो गए।
अनेक जन्मों के संचित कर्म फलभोग के सम्मुख होने पर ही फल देकर छूटते हैं
इस प्रकार संचित कर्मों की प्रत्येक जीवन की गणना करते-करते अनन्त-अनन्त जन्मों के प्रत्येक संसारी जीव के संचित कर्मों की जोड़ असंख्य और अनन्त तक पहुँच जाती है । यों एक जीव के पीछे इतने संचित कर्मों के ढेर जमा पड़े हैं कि उन्हें इकट्ठे किये जाएँ तो अगणित हिमालय पर्वत खड़े हो जाएँ। इन समस्त संचित कर्मों को इस जन्म में, अथवा इसके पश्चात् आगामी अनेक जन्मों में (जब तक कर्मों से जीव सर्वथा मुक्त न हो जाए तब तक) चाहे जब कोई कर्म फलभोग के लिए परिपक्व हो जाए, और उन कर्मों का फलभोग किया जाए, तभी वे शान्त होते हैं, छूटते हैं। जब तक उन्हें भोगा नहीं जाता, तब तक शान्त नहीं होते । ' राजा दशरथ को तीनों कालकृत कर्मों का सामना करना पड़ा
वैदिक पुराणों के 'आख्यान के अनुसार राजा दशरथ के हाथ से श्रवणकुमार का वध हो गया और अपने पुत्र के वियोग से संतप्त उसके माता-पिता ने मरते-मरते राजा दशरथ को शाप दिया कि "तेरी मृत्यु भी तेरे पुत्र के विरह से ही होगी।" परन्तु राजा दशरथ का यह क्रियमाण कर्म तत्काल फल कैसे दे देता ? क्योंकि उस समय राजा दशरथ के एक भी पुत्र नहीं था। इसलिए यह क्रियमाण कर्मफल देकर तुरंत शान्त न हो सका। वह संचित कर्म रूप में जमा रहा। कालान्तर में राजा दशरथ के चार पुत्र हुए। वे बड़े हुए। चारों का विवाह किया। और जब सबसे ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक का दिन आया, तब वह संचित कर्म फल देने हेतु तत्पर हुआ। और ऐसे शुभ अवसर पर राजा दशरथ को वह संचितकर्म पुत्र- विरहं के निमित्त से मृत्यु के रूप फल प्राप्त करा कर ही शान्त हुआ-छूटा। फिर उसमें एक घड़ी भर का भी विलम्ब नहीं किया जा सका। इस प्रकार एक जन्म में कर्म के कालकृत तीनों रूप क्रमशः अभिव्यक्त हुए। पहले 'क्रियमाण,' फिर 'संचित' और अन्त में 'प्रारब्ध' कर्म का सामना करना पड़ा।
१. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ. ४-५
२.
(क) 'रामायण' से
(ख) कर्मनो सिद्धान्त से पृ. ५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org