Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 612
________________ ५९० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . . निकलेंगे? अब तो शीघ्र ही मुझे उठाले।" परन्तु यों अनेक बार रोचिल्लाकर प्रार्थना करने के बावजूद भी जहाँ तक प्रारब्ध कर्म पूर्णतया भोग नहीं लेता, तब तक तन, प्राण और रोग नहीं छूटते। प्रारब्ध कर्मों का फल भोग कर समाप्त हो जाने पर ही शान्ति मिलती है। __फिर जो दूसरे संचित कर्म पककर फल देने के लिए तैयार होते हैं, जीव उन प्रारब्ध कर्मों के फल-भोग के अनुरूप दूसरा शरीर धारण कर लेता है और उसे तदनुरूप माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि मिलते हैं और उक्त जीवन-काल के दौरान उस जीवन में भोगने के तमाम प्रारब्धकर्म भोंगने पर ही छुटकारा मिलता है। इस प्रकार कभी-कभी प्रारब्ध कर्म के फलस्वरूप जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है। . . उत्तराध्ययनसूत्र में भी बताया गया है कि आयुक्षय होने पर वे दिव). - वहाँ से लौटते हैं और मनुष्य योनि को प्राप्त करते हैं, जहाँ वे आर्य क्षेत्र, उत्तमगृह, पशु, स्वर्ण आदि दशांग कामभोग सामग्री से युक्त होते हैं।" ये सब प्रारब्ध के फल हैं। संचित कर्म प्रारब्ध के रूप में कब तक? इस प्रकार अनादिकाल से अनेक जन्म-जन्मान्तर में जमा हुए संचित कर्म पककर फल देने हेतु प्रारब्ध कर्म के रूप में ज्यों-ज्यों तैयार होते जाते हैं, त्यों-त्यों वह जीव अनन्तकाल तक भिन्न-भिन्न शरीर (कर्मानुरूप) धारण करता ही रहता है। और उसे तब तक देह धारण करने पड़ते हैं, जब तक वह कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त न कर ले। त्रिविधकालकृत कर्मों से छुटकारा पाये बिना मोक्ष नहीं यही कारण है कि इन कालकृत त्रिविधकर्मों से शीघ्र छुटकारा नहीं होने के कारण ही संसार-सागर को पार करना दुस्तर बताते हुए शंकराचार्य ने कहा-"इस जीव का पुनः-पुनः जन्म और पुनः पुनः मरण, तथा पुनः पुनः माता के उदर में शयन, होने के कारण ही इस संसार-सागर को पार करना दुस्तर है। हे मुरारे। कृपा करके इस जन्म-मरण के चक्र से मुझे बचाइये।" संसार-सागर दुस्तर क्यों? आशय यह है कि जीव अनेक योनियों में जन्म लेता ही रहता है, और नये-नये क्रियमाण कर्म भी करता ही रहता है। उनमें से अनेक कर्म संचित रूप में जमा होते रहते हैं। वे संचितकर्म अमुक काल के पश्चात् १. (क) कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ. ७ (ख) उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३ गा. १६-१७-१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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