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कर्म के कालकृत त्रिविध रूप
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कर्म या सत्तारूप कर्म, वे ही होते हैं, जिनका फल मिलना अभी प्रारम्भ नहीं हुआ है। अधिकांश कर्म करने के बाद या बंधने के बाद तत्काल फल नहीं देते। जैनदर्शन में उस-उस कर्म की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति (कालावधि) बताई गई है। इस प्रकार कर्म के सत्ता में (संचित) रहने की कालावधि को 'अबाधाकाल' कहते हैं। कर्म बंधने के बाद जब तक फलदान के सम्मुख नहीं हो जाते, तब तक वे उस-उस कर्मकर्ता जीव को तत्काल कोई बाधा, पीड़ा, कष्ट या सुख-दुःख या हानि-लाभ नहीं पहुँचाते। वैदिक दृष्टि से क्रियमाण कर्म का स्वरूप
जो कर्म वर्तमान में किये जाते हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। सुबह से शाम तक, सोमवार से रविवार तक, महीने की पहली तारीख से अन्तिम तारीख तक, चैत्र सुदी एकम से अगली चैत्रवदी अमावस तक; संक्षेप में, जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त प्राणी जो-जो कर्म करता है, वह सब क्रियमाण कर्म कहलाता है। इसे विशेष स्पष्टरूप से कहें तो जन्म से लेकर मृत्यु तक जो-जो क्रिया वर्तमान में की जा रही है, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, क्रियमाण कर्म की कोटि में आती है।
वैदिक परम्परानुसार क्रियमाण कर्म प्रायः फल देकर ही शान्त होता है। जैसे कि-किसी को प्यास लगी। उसने पानी पीने का कर्म किया। प्यास मिट गई। बस, कर्म फल देकर शान्त हो गया। इसी प्रकार भूख लगी, भोजन करने का कर्म किया, भूख मिट गई। क्रियमाण कर्म अपना फल देकर शान्त होता है। जैनदृष्टि से बध्यमान और वैदिक दृष्टि से क्रियमाण में अन्तर
परन्तु जैनदर्शन में प्रत्येक क्रिया कर्म की परिभाषा में परिगणित नहीं होती। कर्म की परिभाषा में वे ही क्रियमाण आदि त्रिविध कालकृत कर्म परिगणित होते हैं, जो राग-द्वेष या कषाय से प्रेरित होकर किये गए हैं। बध्यमान कर्म ही यहाँ क्रियमाण रूप में समझने चाहिए। क्रियमाण कर्म कब संचित, कब क्रियमाण ?
कई क्रियमाण कर्म ऐसे होते हैं, कि कर्म करने के साथ तत्काल फल नहीं देते। उनका फल मिलने में अमुक समय लगता है। उन कर्मों का फल पकने में देर लगती है; तब तक वे अपक्व रहते हैं। जब तक कर्मफल नहीं दे देते, तब तक वे स्टॉक में जमा यानी संचित रहते हैं। उन्हें संचित कर्म १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. फूलचन्द जैन) पृ. १९ ___ (ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से पृ. १९८ २. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ. ३
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