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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
अपने शुद्ध स्वरूप से क्यों नहीं च्युत होती है? वह अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्वबद्ध तीव्र कर्मों को भी कैसे हटा देती है ? वह अपने शुद्ध आत्म(परमात्म) भाव को देखने हेतु जिस समय उद्यत होती है, उस समय उसके और अन्तराय कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व-युद्ध होता है ?
अन्त में, अनन्तशक्तिमान् आत्मा कब और कैसे परिणामों से बलवान् कर्मों को निर्बल करके स्व-प्रगतिमार्ग को निष्कण्टक बना लेती है? आत्ममन्दिर में विराजमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में प्रबल सहायक अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणाम कब होते हैं और उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणतिरूप तरंगमाला से कर्मपर्वतों को कब और किस प्रकार चूर-चूर कर डालता है ?
गुलांट खाये हुए कर्म, जो कुछ देर के लिए दबे रहते हैं, ऊवारोहणशील आत्मा को कब, कैसे और कितने काल तक नीचे पटक देते हैं ? कौन-कौन-से कर्म बन्ध एवं उदय की अपेक्षा से परस्पर विरोधी हैं ? किस कर्म का बन्ध व उदय किस अवस्था में नियत (अवश्यम्भावी) और किस अवस्था में अनियत है ? किस कर्म का विपाक किस समय तक किस अवस्था में नियत और किस अवस्था और समय में अनियत है। तथा आत्म-सम्बद्ध अतीन्द्रिय कर्म किस प्रकार की आकर्षणशक्ति से और कब स्थूल पुद्गलों को खींचता है, और उनके द्वारा शरीर, इन्द्रियाँ, मन, सूक्ष्म (तेजस-कार्मण) शरीर का निर्माण कब किया करता है ?
ये और इस प्रकार के कर्मों के बन्ध, उदये और सत्ता से सम्बन्धित संख्यातीत प्रश्न उठते हैं। जिनका सयुक्तिक, अनुभवगम्य, विशद एवं सप्रमाण स्पष्टीकरण जैन कर्मविज्ञान विशारद मनीषियों ने किया है।' फलदान की दृष्टि से जैन और वैदिक परम्परा में कालकृत तीन भेद
दूसरी दृष्टि से देखें तो सामान्यतया फलदान की दृष्टि से कर्मों के कालकृत ये तीन भेद किये गए हैं। जैनदर्शन के बध्यमान, सत् और उदीयमान कर्म को ही वैदिक परम्परा में क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कहा गया है। संचित कर्म और सत्ता-स्थित कर्म
किसी प्राणी के द्वारा इस क्षण तक किये गये समस्त कर्म, चाहे इस जन्म में किये हों, या पूर्वजन्म में किये हों, संचित कर्म कहलाते हैं। संचित १. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.) से पृ. ६३-६४
(ख) कर्मग्रन्थ भा. २ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.) से पृ. २२-२३ २. पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. फूलचन्द्र जी जैन) से पृ. १९
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