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५८० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
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मुमुक्षु आत्माओं का लक्ष्य : घाती-अघाती कर्मों का क्षय करना
वस्तुतः जैनधर्म का आदर्श एवं चरमलक्ष्य कर्मों से सर्वथा मुक्ति प्राप्त करना है। समस्त मुमुक्षु आत्माएँ मोक्षप्राप्ति के लिए अपनी आध्यात्मिक साधना तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप की आराधना करती हैं। उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह आत्मा के अनन्त-चतुष्टयरूप मूल गुणों तथा उसके प्रतिजीवी गुणों की घात करने वाले घाती-अघातीकुल के कर्मों को भलीभाँति जान लें तथा आत्मा की स्वाभाविक दशा के विकास में - बाधक घाती-कुल के कर्मों और उनके बन्ध के कारणों की छानबीन करके अप्रमत्त होकर उनके बन्ध से पूर्णतया सावधान रहें। साथ ही, ऐसी करणी या ऐसा सत्पुरुषार्थ करें, जिससे शरीरादि निर्माणकारी तथा भौतिक उपलब्धिकारी अघाती कर्मों से पूर्णतया मुक्त होकर मोक्षधाम प्राप्त कर सकें। जहाँ से संसार में पुनः आवागमन न हो, और आत्मा अपने अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तशक्ति रूप मौलिक गुणों में पूर्णतया लीन हो जाए।
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