Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 597
________________ कर्मों के दो कुल : घाति और अघाति कुल ५७५ है। अन्तराय या बाधकता समाप्त हो जाती है और आत्मा (व्यक्ति) जीवन्मुक्त बन जाता है।" तत्त्वार्थसूत्र, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध आदि में बताया गया है कि सर्वप्रथम मोहकर्म का क्षय होने के पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का शीघ्र ही एक साथ क्षय हो जाता है, तभी केवलज्ञान, केवलदर्शन होता है।"२ घातिकर्मों का उन्मूलन हुए बिना केवलज्ञान एव मोक्ष नहीं होता ये चारों घनघाती कर्म आत्मशक्ति के घातक, आवरक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। यह जीव जब तक इन चारों घातीकर्मों को नष्ट नहीं कर लेता, तब तक उसे न तो केवलज्ञान होता है, और न ही यह जीव मोक्षमन्दिर में प्रवेश के योग्य जीवन्मुक्त (सदेह मुक्त) बन सकता है। केवलज्ञान की उपलब्धि के लिये चार घाती कर्मों का क्षय होना अनिवार्य है। इनके समूल नष्ट होने पर ही आत्मा अपने मूलगुणों को पूर्णरूप से प्रगट कर सकती है, आत्मस्वरूप में सतत स्थिर रह सकती है। घातीकर्म के दो भेद : सर्वघाती, देशघाती - घातीकर्मों के दो भेद हैं-सर्वघाती और देशघाती। जो कर्म आत्मा के किसी गुण को पूर्णतया, आवरित कर लेता है, जो उसका पूरी तरह से घात करता है, आत्मगुणों पर आच्छादित होकर उन्हें किंचित् मात्र भी व्यक्त नहीं होने देता, उसे सर्वघाती कहते हैं। इसके विपरीत जो कर्म आत्मा के किसी गुण के एकदेश (अंश) को आवरित आच्छादित करता है, घात करता है, वह देशघाती कर्म है। १. (क) जैनकर्म-सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन साभार उद्धृत पृ. ७७-७८ (ख) सुक्कमूले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति। एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ -दशाश्रुतस्कन्ध ५/१४ (ग) 'एग विगिंचमाणे पुढो विगिचइ।' -आचारांग १/३/४ (घ) मूलसित्ते फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलं। -ऋषिभाषितानि २/६ २. (क) 'मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।' -तत्त्वार्थसूत्र १०/१ . (ख) "अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मगंठि विमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्वीए अट्ठवीसइविहं मोहणिज्ज कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्ज, नवविहं दसणावरणिज्ज, पंच विहं अंतराइयं, एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ। तओपच्छा अणुत्तर.........केवलवरणाणदंसणं समुप्पादेइ।" -उत्तरा. २९/७१ ३. (क) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ३९, १८० (ख) पंचसंग्रह (प्रा.) गा. ४८३ ४. (क) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ४० (ख) द्रव्यसंग्रह टीका गा. ३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644