Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 599
________________ कर्मों के दो कुल : घाति और अघाति कुल ५७७ का अविच्छिन्न प्रवाह जारी रखने में ये कर्म असमर्थ होते हैं। समय की अवधि पकने के साथ ही अपना फल देकर अनायास ही ये अलग हो जाते हैं। ये शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा में निमित्त बनते हैं। इसलिए अघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है। इनके कारण आत्मा अमूर्त होते हुए भी मूर्तवत् रहती है। इनका असर शरीर, इन्द्रिय, आयु, मन, वचन, अंगोपांग, विषय-सुख साधन आदि पर होता है। - अघाती कर्म चार हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र। ये चारों बाह्य अर्थापेक्षी हैं। इनसे भौतिक पदार्थों की उपलब्धि होती है। वैसे संसारी जीवन आत्मा और शरीर के संयोग-सह भाव से बनता है। इसमें नामकर्म शुभ-अशुभ शरीर-निर्माणकारी कर्मवर्गाणा रूप है। आयुष्यकर्म शुभ-अशुभ जीवन को बनाये रखने वाली कर्मवर्गणारूप है। व्यक्ति को सम्माननीय-असम्माननीय कहलाने वाली कर्मवर्गणारूप गोत्रकर्म है और सुख-दुःखानुभूतिकारक कर्मवर्गणारूप है-वेदनीयकर्म।' घाती-अघाती कर्मों में कौन पापरूप, कौन पुण्यरूप? घातिकर्म तो पापरूप हैं ही, अघातीकर्म के भेदों में से कुछ पुण्यकर्म हैं और कुछ पापकर्म। उनकी व्याख्या एवं चर्चा हम आगे के खण्डों में करेंगे। अघाती कर्मों का कार्य और प्रभाव वास्तव में अघाती कर्म की अनुभागशक्ति आत्मा के गुणों पर सीधा असर नहीं करती, फिर भी आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात करने तथा उन्हें आच्छन्न करने में अघाती कर्मों का हाथ है ही। अघातीकर्मवश जीव को शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है। जीव के ४ प्रतिजीवी गुण हैं-अव्याबाध सुख, अटल अवगाहना, अमूर्तत्व और अगुरुलघुत्व। इन चारों को क्रमशः ये चारों अघाती कर्म प्रकट नहीं होने देते। वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को आच्छन्न करता है। आयुष्यकर्म आत्मा की अटल अवगाहना-शाश्वत स्थिरता नहीं होने देता। नामकर्म आत्मा की अरूपी-अमूर्तदशा को अनावृत नहीं होने देता। गोत्रकर्म आत्मा के अगुरुलघुत्व गुण को रोकता है। १. (क) पंचसंग्रह गा. ४८४ ।। (ख) गोम्मटसार (क) गा. ९ (ग) जैन कर्मसिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से पृ. ७८ २. कर्मग्रन्थ पंचम, प्रस्तावना (पं. फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. २३ ३. धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. ६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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