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५७४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . लिखते हैं-जैसे मेघ सूर्य को आच्छादित करके उसकी ज्योति को आवृत कर देते हैं, ऐसे ही ज्ञानावरणीय कर्म के कृष्णतम मेघ आत्मा की ज्ञानज्योति को ढक देते हैं। अनन्तज्ञान का धनी होकर भी आत्मा इसी के प्रभाव से बुद्धू-सा बन जाता है। दर्शनावरणीय कर्म सामान्य बोध का घातक बनकर आत्मा को पदार्थों का सामान्य बोध भी अच्छी तरह नहीं होने देता। मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित बनाए रखता है। जो मनुष्य भगवान् का प्रतिनिधि माना जाता है, मोहनीय कर्म इसी मनुष्य को पशु-तुल्य बनाकर रख देता है। क्रोध, मान, माया और लोभ की चाण्डाल चौकड़ी इसी कर्म की कृपा से फलती-फूलती है। तथा अन्तरायकर्म दानादि कार्यों में रुकावट डालता है, बनते हुए कार्य को भी बिगाड़ देता है। इसके कारण बना-बनाया खेल बिगड़ जाता है। इस तरह ज्ञानावरणीय आदि चारों कर्म आत्मिक गुणों का घात करते हैं, फलतः इन्हें 'घातीकर्म' कहा जाता है।" इन चारों में मोहनीय कर्म प्रबल एवं प्रमुख
___ इन चारों में मोहनीय की प्रबलता बताते हुए डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं-"इन घाती कर्मों में अविद्यारूप मोहनीय कर्म ही आत्मस्वरूप के आवरण, क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल (अवधि) की दृष्टि से प्रमुख है। वस्तुतः मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म-संस्कार है, जिसके कारण कर्मबन्ध का प्रवाह सतत बना रहता है। मोहनीय कर्म उस बीज के समान है, जिसमें (पुनः पुनः) अंकुरण की शक्ति है। (राग, द्वेष और मोह या कषाय आदि कर्मबन्ध के मुख्य-कारण मोहनीय कर्म की. ही सन्तति है)। जिस प्रकार उगने योग्य बीज, हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनी परम्परा को बढ़ाता रहता है, उसी प्रकार मोहनीयरूपी कर्म-बीज ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायरूप हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म-परम्परा को सतत बनाये रखता है। मोहनीय कर्म ही जन्म-मरणरूप संसार या. बन्धन का मूल है। शेष घाती कर्म उसके सहयोगी मात्र हैं। इसे (शास्त्र में) कर्मों का सेनापति कहा गया है। जिस प्रकार सेनापति के पराजित होने पर सारी सेना हतप्रभ होकर शीघ्र ही पराजित हो जाती है, उसी प्रकार मोहकर्म पर विजय प्राप्त कर लेने पर शेष समस्त कर्मों को आसानी से पराजित कर आत्मशुद्धता की उपलब्धि की जा सकती है। जैसे ही मोह नष्ट हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण का पर्दा हट जाता १. ज्ञान का अमृत (प. ज्ञानमुनि जी) से साभार उद्धृत पृ. १०३
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