Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 590
________________ ५६८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) कृतक कर्म सकाम ही प्रतीत होते हैं, ऐसा ही देखा-सुना एवं परिचित तथा विश्रुत है। इस कारण व्यावहारिकदृष्टि से यह वस्तुतः सकाम ही प्रतीत होता है, निष्काम नहीं । किन्तु निश्चयदृष्टि से हृदय-भूमि में प्रवेश किये बिना निष्काम पक्ष का ग्रहण सम्भव नहीं है। अध्यात्म पथ में आभ्यन्तर ही प्रधान है, बाह्य नहीं । परन्तु निष्काम - पक्ष के विषय में जब भी कोई वक्ता कुछ कहने - समझाने का प्रयत्न करता है, तब साधारणजन उसके आशय को स्पर्श करने, ग्रहण करने एवं हृदयंगम करने में असमर्थ होने के कारण अथवा निष्काम - पक्ष का विषय अदृष्ट, अननुभूत एवं अश्रुत होने के कारण बहुधा श्रोतागण के समक्ष सकामपक्ष ही प्रस्तुत हो जाता है। ऐसी स्थिति में निष्कामपक्ष श्रोतागण को प्रायः हृदयंगम नहीं हो पाता है । " निष्काम कर्म में सूक्ष्म प्रशस्तरागात्मक कामना तथा फलाकांक्षा भी निष्काम कर्म के विषय में एक शंका यह भी हो सकती है कि निष्काम कर्म में जैसे सूक्ष्म प्रशस्तरागात्मक कामना रहती है, वैसे प्रशस्त फलाकांक्षा भी तो सूक्ष्मरूप में रहती है। व्यावहारिक भूमिका में सूक्ष्म फल के लोभरूप फलाकांक्षा का सर्वथा अभाव होना सम्भव नहीं। लौकिक परोपकारादि कर्मक्षेत्र की बात तो दूर रही, लोकोत्तर स्व-पर- कल्याणसाधना के क्षेत्र में भी वीतराग पूर्णकाम अर्हद् भगवन्तों या उस कोटि के केवली (सर्वज्ञ) भगवन्तों के सिवाय अन्य किसी गुणस्थानवर्ती जीव को. शत-प्रतिशत ऐसी उच्चतम स्थिति प्राप्त नहीं होती। साधकवर्ग चाहे कितनी ही उत्कृष्ट महाव्रतादि या दशविध क्षमादि धर्म का आचरण करता हो, किन्तु अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप उसमें प्रशस्त एवं सूक्ष्म फलाकांक्षा का सद्भाव अवश्य रहता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से दशम गुणस्थान तक लोभ रहता है किसी भी बाह्य पदार्थ के प्रति निष्काम कर्मयोगी की फलाकांक्षा न भी हो, परन्तु अपनी उक्त स्थिति अथवा सफलता के प्रति सूक्ष्म अहंकार, अधिकाधिक प्रगति करने का सूक्ष्म लोभ, अपनी पद्धति के प्रति सूक्ष्म आग्रह तथा अपनी स्वीकृत साधना में आगे बढ़ने की तथा कभी-कभी स्वीकृत देव - गुरु- धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति के साथ-साथ रागभाव एवं कट्टरता, शास्त्रीय ज्ञान आदि में दूसरे से आगे बढ़ने की कर्तृत्व विषयक कामना तथा कभी-कभी अपने आचार-विचार एवं मान्यता, परम्परा आदि के प्रति हलका-सा पूर्वाग्रह; ये और इस प्रकार की ज्ञातृत्व, भोक्तृत्व, कर्तृत्व विषयक प्रशस्त कामना - प्रशस्त सूक्ष्म फलाकांक्षा का सद्भाव उसमें संभावित है। १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १४२-१४३ २. वही, पृ. १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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