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सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५६७ मदर्थ (आत्मार्थ या परमात्मभावप्राप्त्यर्थ) कर्म का समस्त आसक्तियों से मुक्त होकर सम्यक् आचरण कर ।
जैन परिभाषा में कहा जा सकता है- यतनापूर्वक चलना, फिरना, सोना, खाना-पीना आदि चर्या क्रिया करना ही निष्काम कर्म है।' अर्थात् - साधक को अपनी किसी भी चर्या में, महाव्रतादि पालन में, साधना में, तपस्या आदि में दम्भ, दिखावा, अविवेक, यशकीर्ति, प्रसिद्धि, प्रदर्शन, लोभ, स्वार्थ, फललिप्सा, अहंकर्तृत्व, स्वामित्व, भोक्तृत्व, लालसा आदि से दूर रहना चाहिए। ऐसा निष्कामकर्मी साधक पापकर्म का बन्धन नहीं करता, पाप से लिप्त नहीं होता ।
सकाम कर्म को निष्काम में परिणत करने की तीन विधियाँ
गीता में सकाम कर्म को निष्काम कर्म के रूप में परिणत करने के लिए परमात्मसमर्पण की तीन विधियाँ बताई गई हैं - (१) परमात्मा में मन, बुद्धि और चित्त को स्थिर करने का अभ्यास करना, (२) मदर्थ (परमात्मा के लिए) कर्म करना, (३) आत्मवान् (आत्मार्थी) एवं यत्नवान् होकर परमात्मप्राप्तिरूप योग की शरण में आना और सर्वकर्मफलत्याग करना ।
इन तीनों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर- उत्तर की विधि श्रेष्ठ बताई है। मदर्थ कर्म का विश्लेषण करते हुए गीता में कहा गया है - यज्ञ, दान, तप या शयन, भोजन आदि जो भी सत्कर्म या नियतकर्म करना हो, उसे परमात्मा को अर्पण करके कर। ऐसा करने से अहंकर्तृत्व, अहं भोक्तृत्व एवं कर्मफलासक्ति दूर होगी और मंद - सकाम कर्म भी निष्काम कर्म के रूप में परिणत हो जाएगा।
ज़ैनपरिभाषा में इसका फलितार्थ यह है कि यंतनापूर्वक - विवेकपूर्वक आत्महित की दृष्टि से कर्म या प्रवृत्ति करे । प्रवृत्ति एवं निवृत्ति का मुख्य स्वर आत्महित या आत्मार्थ की ओर है। अर्थात् - अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति करे, वह भी यतना, विवेक, वैराग्य, शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्था आदि भावों से ओतप्रोत होकर । २
निष्काम पक्ष का ग्रहण कठिन
यद्यपि ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये तीनों ही प्रकार के कृतक कर्म सकाम भी होते हैं, निष्काम भी । व्यावहारिक धरातल पर पूर्वोक्त त्रिविध
१. (क) गीता ३ / ९
(ख) दशवैकालिक. अ. ४/८
(ग) सामायिक साधना में मन के १० अतिचार ।
२. (क) गीता अ. १२/८- ९-१०-११ तथा १२/५५, ९/२६-२७
(ख) उत्तराध्ययन ३१/२
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