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५३८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
के साथ इस तथ्य की कसौटी पर कसकर भी जैनाचार विधायकों ने शुभाशुभत्व का निर्णय दिया है।
कर्म के शुभत्व के लिए मनोवृत्ति और क्रिया दोनों का शुभ होना अनिवार्य
जैन- आचार-दर्शन में प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ मनोवृत्ति और क्रिया दोनों के शुभत्व पर बहुत जोर दिया है। यही कारण है कि आचार संबंधी. जैनदृष्टि एकांगी और निरपेक्ष नहीं है। वह सर्वांगी एवं सापेक्षवादी है। एक ओर वह वृत्ति - सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायिका मानती है, तो दूसरी ओर समाज सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्यरूप पर से भी उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती है। जैनदर्शन में द्रव्य और भाव यानी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों का मूल्यांकन किया गया है। जैन कर्मविज्ञान में योग (क्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही कर्मबन्ध के कारण माने गए हैं। यद्यपि भाव (अभिप्राय) को यहाँ प्रधान कारण माना गया है, फिर भी वृत्ति और क्रिया में विभेद हो, ऐसा जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं है। मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, इसका मतलब हैमनोवृत्ति ही अशुभ है; क्योंकि मन में शुभभाव होने पर हिंसादि पापाचरण सम्भव ही नहीं है । "
कर्म के शुभत्व के सम्बन्ध में एकांगी मान्यता का खण्डन
इसीलिए सूत्रकृतांगसूत्र में जैनदृष्टि का प्ररूपण करते हुए आर्द्रककुमार कहता है- "क्या दीक्षा धारण किया हुआ पुरुष ऐसी असंगत बातें कर सकता है ? मन में हिंसा को निन्दनीय एवं दोषयुक्त समझते हुए भी आशय बदल कर कहना और बाहर से अशुभाचरण करना क्या आत्मप्रवंचना एवं लोकछलना नहीं है ?" बौद्धों की एकांगी धारणा का निराकरण. करते हुए आर्द्रककुमार स्पष्ट कहता है - " जो मांस खाता हो, चाहे न जानते हुए ही खाता हो, तो भी वह निर्दोष नहीं है, पाप (अशुभ) कर्म का भागी है। 'हम जानकर नहीं खाते, इसलिए हमें दोष (पाप) नहीं लगता,' ऐसा कहना मिथ्या नहीं है तो क्या है ?'
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एकान्तरूप से मनोभावों पर ही जोर देने वाली एकांगी मान्यता का निराकरण करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है- “अशुभ (पाप) कर्म के तीन स्थान हैं- स्वयं करने से, दूसरे से कराने से और दूसरों के कार्य का
१. जैन कर्मसिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश उद्धृत पृ.
४०
२. (क) सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. २, अ. ६, गा. ३८-३९
(ख) जैनकर्मसिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश, पृ. ४०
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