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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
ज्ञानी पुरुषों ने बताया है कि संसारी जीवों के प्रायः सात या आठ शुभाशुभ कर्मों का बन्ध और उदय चालू रहता है। इस कारण साता के साथ असाता का, सुख के साथ दुःख का चक्र चलता रहता है। ____ कल्पना कीजिए-जहाँ पर इस समय चिलचिलाती धूप दिखलाई दे रही है वहाँ पर कुछ समय के पश्चात धूप के दर्शन नहीं होंगे। वहाँ पर आपको छाया दिखलाई देगी। जहाँ पर आपको पहले छाया दिखलाई दे रही थी वहाँ पर कुछ समय के पश्चात तेजतर्रार धूप दिखलाई देती है। इस प्रकार धूप और छाया का क्रम चलता रहता है। यह क्रम परिवर्तन का प्रतीक है। हम चिलचिलाती धूप के स्थान पर छाया देखते हैं और छाया के स्थान पर धूप देखते हैं। वैसे ही शुभ और अशुभ कर्म के कारण साता के स्थान पर असाता और असाता के स्थान पर साता हो जाती है तो उसमें कोई अनोखी बात नहीं है।'
निष्कर्ष यह है कि सांसारिक और छद्मस्थ मनुष्य के जीवन में शुभाशुभ कर्मों की धूप-छांह चलती रहती है। परन्तु एक बात निश्चित है कि जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टिकोण रखकर व्यवहार करता है, और प्रतिक्षण, प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति या चर्या करते समय अप्रमत्त, सावधान, यतनाशील रहता है, उसके उस समय अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध नहीं होता, क्योंकि वह प्रतिपल सावधान होकर कर्मों के आगमन (आम्रद) के द्वारों को बन्द कर देता है और मन-इन्द्रिय-संयम रखकर चलता है। वह प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति का ज्ञाता-द्रष्टा रहता है। उस प्रवृत्ति, उस मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषय या पदार्थ अथवा अनुकूल प्रतिकूल संयोग-वियोग के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, प्रियता-अप्रियता की बात नहीं सोचता। वह प्रत्येक परिस्थिति में, शुभाशुभ संयोग-वियोग में समभाव से भावित रहता है। उसमें सिर्फ ज्ञानचेतना रहती है, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना को वह पास फटकने नहीं देता। ऐसा महाभाग अप्रमत्त साधक शुद्ध कर्म (जिसे अकर्म कहा जाता है) का प्रतीक है।
निष्कर्ष यह है कि ऐसा सावधान छद्मस्थ साधक शुद्धोपयोग में रहने के लिए प्रयत्नशील रहता है, परन्तु प्रशस्त रागवश बीच-बीच में अशुभयोग से विरत होने अथवा अशुभयोग का निरोध करने हेतु शुभयोग में प्रवृत्त रहता है। पूर्वबद्ध शुभ-अशुभ कर्म उदय में आने पर भी वह १. जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्मों की धूप-छांह' लेख से पृ.
११-१२ २. (क) देखें- दशवैकालिक सूत्र की ये दो गाथाएँ:- अ. ४ गा.८,९
(ख) कर्मवाद में प्रकाशित लेख से भावांश उद्धृत पृ. २०८-२०९
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