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सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५५३
व्युत्पन्न होते हैं, परन्तु दोनों शब्दों के अर्थ में रात और दिन का सा अन्तर है। पहले का अर्थ होता है - काम सहित और दूसरे का अर्थ होता हैनिर्गत-काम यानी काम-रहित । ये दोनों कर्म के विशेषण हैं। इन दोनों में 'काम' शब्द निहित है; इसलिए सर्वप्रथम 'काम' शब्द के विभिन्न अर्थों और क्रमागत पर्यायों पर विचार करना आवश्यक है।
सकाम - अकाम निर्जरा से सकाम निष्काम कर्म के अर्थ भिन्न हैं
जैनागमों में निर्जरा (अंशतः कर्मक्षय) के विशेषण के रूप में दो शब्द प्रयुक्त होते हैं - सकाम और अकाम। वहाँ 'काम' शब्द का अर्थ इससे सर्वथा भिन्न है। सकाम निर्जरा और सकाम कर्म तथा अकाम-निर्जरा और निष्काम कर्म इन दोनों के भावार्थ में बहुत अन्दर है । जिस प्रकार सकाम कर्म उपादेय नहीं माना जाता, उसी प्रकार सकाम - निर्जरा त्याज्य नहीं, बल्कि उपादेय मानी जाती है। इसी प्रकार जैसे निष्काम कर्म कथंचित् उपादेय माना जाता है, उस प्रकार अकाम निर्जरा कथमपि उपादेय नहीं मानी जाती। वहाँ सकाम निर्जरा का अर्थ है - स्वेच्छा से, सुदृढ़ मनोबल से, शुद्ध उद्देश्य से की हुई कर्मों की निर्जरा; और अकाम निर्जरा का अर्थ हैबलात्, दबाव से तथा बिना इच्छा से, निरुद्देश्यपूर्वक हुई निर्जरा, जैसेनरक के नारकीयों के द्वारा जो कष्ट, यातनाएँ भोगी जाती हैं, उनसे जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा है।
कर्म के सन्दर्भ में काम शब्द में अनेक अर्थ गर्भित
परन्तु यहाँ सकाम और निष्काम कर्म के अर्थ ही दूसरे हैं; मुख्य अर्थ तो ऊपर दिये गये हैं। परन्तु 'काम' शब्द के गर्भ में और भी अर्थ छिपे हुए हैं, उन्हें जानने से उसके व्यापक अर्थों का पता लगेगा। सामान्यरूप से शास्त्रों में दो प्रकार के काम बताए गए हैं- इच्छाकाम और मदनकाम । यद्यपि स्थूल दृष्टि से व्यावहारिक धरातल पर काम शब्द के एकार्थवाची ये सभी शब्द माने जाते हैं-वासना, राग, कामना, आकांक्षा, इच्छा, लालसा, • आसक्ति, तृष्णा आदि; तथापि सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकन करें तो काम शब्द में निहित ये सब अर्थ विपरीत क्रम से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हुए बाहर से भीतर की ओर चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में (विपरीत क्रम से) पूर्व- पूर्ववर्ती कार्य और उत्तर-उत्तरवर्ती कारण बनता चला जाता है। इन सबकी पृष्ठभूमि में एकमात्र कामसुखानुभव की स्मृति स्थित रहती है, जो कि अपने-अपने विषय के भोगाभ्यास द्वारा जनित संस्कार के रूप में चित्त के अन्तःवर्ती अक्षय कोष में पड़ी रहती है । वह संस्कार ही अन्तिम कारण है । "
१ कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से भावांश, पृ. १३४-१३५
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