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सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ३५७
इस प्रकार लौकिक निःस्वार्थ एवं फरार्थ कार्य हो, या लोकोत्तर कार्य, प्रवृत्ति या आचरण हो, प्रत्येक के पीछे कोई न कोई शुभ कामना, शुभेच्छा, प्रशस्तराग आदि रहते ही हैं। यद्यपि अकर्म से युक्त वीतरागी सयोगीकेवली साधक भी गमनागमन, विहार, आहार, नीहार, उपदेश आदि चर्या तो करते हैं, परन्तु उनकी क्रिया के पीछे कोई विकल्प, इच्छा, कामना, रागादिभाव या कषायभाव नहीं होता, इसलिए वह कर्म बन्धकारक नहीं होता। यही निष्काम कर्म और अकर्म में मूलभूत अन्तर है। निष्काम और सकाम कर्म की विभाजक रेखा
___ अब रहा सवाल यह कि सकाम और निष्काम कर्म में क्या अन्तर है, जबकि निष्काम कर्म के पीछे भी कोई न कोई शुभ कामना, इच्छा रहती ही है। ऐसी स्थिति में किसी कर्म को निष्काम और किसी को सकाम कैसे कहा जा सकता है ? सकाम और निष्काम कर्म की विभाजक रेखा क्या है ?
भगवद्गीता में सकाम और निष्काम कर्म का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। तीव्र कामनामूलक कर्मों को 'सकाम' और कर्मफलभोग की या कर्मफल की आकांक्षा न करने को 'निष्काम' कहा गया है। निष्काम कर्म की व्याख्या
निष्काम कर्म को वहाँ कर्मयोग या कर्मकौशल बताकर कहा गया है कि "तेरा केवल कर्म करने का अधिकार है, फलप्राप्ति, फलाकांक्षा या फलभोग की इच्छा करने में नहीं।" साथ ही "कर्मफल का हेतु तू मत बन" अर्थात्- “मैंने किया, मैं करता हूँ, मेरा किया हुआ है," 'मेरे निमित्त से यह हुआ'- इस प्रकार का अहकर्तृत्व या ममकर्तृत्व कर्म के साथ मत जोड़। इसके अतिरिक्त एक शर्त और जोड़ दी है, निष्काम कर्म के साथ, वह यह कि कर्तव्य कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो, अर्थात्-कर्तव्य कर्म करते हुए निन्दा-प्रशंसा भी होती , अथवा कार्य में बाधाएँ भी आती हैं। अतः उन्हें सोचकर तू अगर सत्कर्तव्य को, आवश्यक कर्तव्य को छोड़कर निश्चिन्त होकर बैठ जाएगा कि कर्म ही नहीं करूँगा तो कर्म का त्याग हो जाएगा; इस भ्रम में मत पड़। बाह्यरूप से कर्म का त्याग कर देने मात्र से कर्मत्यागी नहीं हो जाता; कर्मफल का त्याग ही, स्वेच्छा से कर्मफलाकांक्षा-त्याग ही कर्मत्याग है।'' १. (क) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। .. मा कर्मफलहेतुर्भूः, मा ते संगोऽस्त्व कर्मणि॥
-गीता २/४७ (ख) यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।
-गीता १८/११ (ग) जे य कंते पिए भोए लद्धे विपिट्ठी कुव्वइ।
साहीणे चयइ भोए से हु चाइत्ति वुच्चइ॥ -दशवकालिक २/३
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