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५६२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) से उसी जगह दूसरी डाली उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार एक कार्य (कम) का त्याग कर देने से तुरन्त दूसरे कार्य (कम) में प्रवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। इसलिए निष्काम कर्म के लिए नियतकर्म का त्याग आवश्यक नहीं बताया, अपितु उन-उन कर्मों (कार्यो) पीछे रही हुई फलप्राप्ति की कामनाओं, वासनाओं या लालसाओं (कामों) का त्याग आवश्यक बताया है। कामत्याग के अन्तर्गत पूर्वोक्त कामना, वासना, संस्कार आदि से लेकर तृष्णा तक का त्याग समझ लेना चाहिए।' निष्कामकर्म में कर्मफल की आकाक्षा तथा कर्मफल का त्याग
इस दृष्टि से निष्कामकर्म में दो बातें प्रतिफलित होती हैं-(१) नियतकर्म का त्याग नहीं, अपितु कर्मफल की आकांक्षा (कामना) का त्याग, एवं (२) कर्मफल का त्याग। इस परिभाषा में गीता और जैनागम दोनों एकमत हो जाते हैं। मीमांसकों द्वारा प्रतिपादित त्रिविध कर्म सकाम है
निष्काम कर्म की इस कसौटी पर जब हम वेदवादरत मीमां-सकों द्वारा प्रतिपादित त्रिविध कर्मों (काम्यकर्म, निषिद्ध कर्म और नित्य-नैमित्तिक कम) को कसते हैं तो स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि इन तीनों ही प्रकार के कर्मों के पीछे कामना निहित है। 'स्वर्गकामो यजेत', 'पुत्रकामो यजेत', इत्यादि वाक्यों द्वारा निहित काम्यकर्मों के मूल में तो स्पष्टतः इहलौकिकपारलौकिक कामनाएँ हैं। मांसभक्षण, सुरापान, ब्राह्मणहत्या आदि निषिद्ध कर्म त्याज्य होते हुए भी यदि इन निषिद्ध कर्मों के त्याग के पीछे लोभ, स्वार्थ, भय, वासना, कामना आदि हैं तो वे भी निष्काम न रहकर 'सकाम' हो जाएँगे। यद्यपि काम्यकर्म ‘सकाम' होते हुए भी पर-अहितकर नहीं होते, परन्तु निषिद्ध कर्म तो स्व-पर-अहितकर होते हैं। तीसरे नित्य-नैमित्तिक कर्म भी प्रकारान्तर से सकाम हैं, विविध लौकिक सुफलाकांक्षाएँ, कामनाएँ उनके पीछे छिपी हैं। जैसे-सन्ध्यावन्दन, श्राद्धकर्म, षोड़श संस्कार, उपनयन आदि भी किसी न किसी लौकिक कामनावश किये जाते हैं, इसीलिए गीता में वेदवादरत पुरुषों द्वारा प्रतिपादित एवं आचरित (पूर्वोक्त त्रिविध)कर्मों को प्रायः कामनामूलक होने से 'सकामकम' की कोटि में परिगणित किया है।
१. कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वी) से भावांश उद्धृत पृ. १३८
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