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५४८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
शुभ-अशुभ दोनों को क्षय करने का क्रम
शुभ और अशुभ दोनों के क्षय करने का क्रम जैनाचार्यों ने इस प्रकार बताया है-जैसे एरण्ड के बीज या अन्य विरेचक औषधि मल के रहने तक रहती है, मल के निकल जाने पर वह भी साथ ही निकल जाती है, वैसे ही पाप-मल के निकल (समाप्त हो) जाने के बाद ही पुण्य भी अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं। वे किसी भी नई कर्म-संतति को उत्पन्न नहीं करते। वस्तुतः जैसे साबुन मैल को साफ करता है, मैल साफ होने पर वह स्वयं भी अलग हो जाता है वैसे ही पुण्य (शुभ कम) भी पाप (अशुभ कम) मल को अलग करने में पहले सहायक होता है और उसके अलग हो जाने पर स्वयं भी अलग हो जाता है। अशुभ कर्म से बचने पर शेष शुभ कर्म भी प्रायः शुद्ध बन जाता है। ____ अतः पहले तो साधक को अशुभ कर्म से बचना चाहिए। अशुभ कर्म से सुरक्षित हो जाने पर शेष रहा शुभ कर्म भी बहुधा शुद्ध कर्म बन जाता है। वास्तव में, द्वेष पर पूर्ण विजय पा लेने पर.राग भी नामशेष हो जाता है। फिर तो राग-द्वेष के अभाव में उससे जो भी कर्म होंगे, वे शुद्ध (ईर्यापथिक) कर्म होंगे। तप, संवर आदि कार्य अनासक्तिपूर्वक करने से ही कर्मक्षय के कारण हैं
जैनाचारदर्शन में बताया है कि तप, संयम एवं संवर माना जाने वाला कार्य यदि अनासक्त भाव या राग-द्वेषरहित होकर किया जाता है तो वह कर्मक्षय का कारण है, और वही पूर्वोक्त कार्य आसक्तिपूर्वक या रागद्वेषयुक्त भाव से किया जाए तो वह बन्धन का कारण है। जैनदर्शन ने साधक का अन्तिम लक्ष्य अशुभ से शुभ कर्म की ओर बढ़ना और फिर शुभ से शुद्ध कर्म को प्राप्त करना बताया है।रे ..
भगवद्गीता में तो स्पष्ट कहा गया है कि शुभ और अशुभ कर्म दोनों ही बन्धनरूप हैं, मोक्ष के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है। “समत्व बुद्धियुक्त पुरुष शुभ (सुकृत) और अशुभ (दुष्कृत) दोनों कर्मों का त्याग कर देता है।" सच्चे भगवप्रिय भक्त का लक्षण बताते हुए वहाँ कहा गया है“जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक (या चिन्ता) करता है, और न मनोज्ञपदार्थ या शुभफल की आकांक्षा करता है, जो शुभ और अशुभ दोनों कर्मों का परित्यागी है, वही भक्तिमान् साधक मुझे प्रिय है।"३ १. जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश पृ. ४५ २. वही, पृ. ४५-४६ ३. (क) बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत-दुष्कृते। -गीता २/५० (ख) यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभ-परित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः।। -गीता १२/१७
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