Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 564
________________ ५४२. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . दृष्टिकोण शुभ होगा, और कौन-सा व्यवहार या दृष्टिकोण अशुभ ? इसकी कसौटी भारतीय तत्त्वचिन्तकों ने यही बताई है कि “जो तू अपने लिए चाहता है, वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति कर; जो तू अपने लिए नहीं चाहता, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति भी मत कर।" इसका फलितार्थ यह है कि जैसा आचरण या व्यवहार व्यक्ति अपने लिए प्रतिकूल समझता है, वैसा आचरण और व्यवहार दूसरे के प्रति नहीं करना तथा जैसा व्यवहार और आचरण व्यक्ति अपने लिए.अनुकूल समझता है, वैसा ही आचरण और व्यवहार दूसरे के प्रति करना, यह शुभ कर्म का आचरण है। इसके विपरीत जैसा आचरण या व्यवहार अपने लिए प्रतिकूल है, वैसा आचरण या व्यवहार दूसरे के प्रति करना तथा जैसा व्यवहार या आचरण अपने लिए अनुकूल है, वैसा व्यवहार या आचरण दूसरे के प्रति न करना अशुभ कर्म का आचरण है। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत्' (अपने लिए प्रतिकूल आचरणों या व्यवहारों को दूसरों के प्रति भी मत करो) यही कर्म के शुभत्व का मूलाधार भारतीय ऋषियों ने बताया है। सूत्रकृतांगसूत्र में शुभाशुभत्व (धर्म-अधम) के निर्णय में अपने समान दूसरे को मानने का- आत्मौपम्य का दृष्टिकोण स्वीकृत किया गया है। अनुयोगद्वार सूत्र में भी बताया गया है कि "जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर जो स्वयं हिंसा नहीं करता, न ही करवाता है, वही समत्वयोगी सममना श्रमण है।" कर्म का शुभाशुभत्व : कहाँ व्यक्तिसापेक्ष, कहाँ समाजसापेक्ष निष्कर्ष यह है कि जहाँ हम कर्ता के अभिप्राय की दृष्टि से विचार करते हैं, वहाँ कर्म का शुभत्व-अशुभत्व प्रायः व्यक्तिसापेक्ष होता है, और जहाँ पुण्य-पाप की दृष्टि से विचार करते हैं, वहाँ कर्म का शुभाशुभत्व प्रायः समाजसापेक्ष होता है। यही कारण है कि जैन विचारकों ने कर्म के हेतु (उद्देश्य) और परिणाम के आधार पर भी उसके शुभाशुभत्व का विचार किया है, परन्तु मुख्यता कर्ता के अभिप्राय को ही दी है। एक व्यक्ति अंधे को अंधा, काने को १. (क) देखें-हरिभद्रसूरिकृत सम्बोधसत्तरि ग्रन्थ। (ख) प्राणा यथाऽत्मनोऽभीष्टाः भूतानामपि ते तथा। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ -महाभारत, शान्तिपर्व २५८/२१ २. जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश पृ. ४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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