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कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप
५४३ काना और चोर को चोर कहता है । स्थूलदृष्टि से यह सत्य होते हुए भी पारमार्थिकदृष्टि से असत्य माना गया है, क्योंकि ऐसा कहने ( कथनकिया) के पीछे वक्ता का आशय उसके हृदय को चोट पहुँचाना है, उसे हेय या तिरस्कृत दृष्टि से देखकर उसकी आत्मा का अपमान करना है। इसलिए ऐसा वाचिककर्म बाहर से शुभ प्रतीत होने पर भी अन्तरंग से आध्यात्मिक एवं नैतिक दृष्टि से अशुभ है। "
यद्यपि बन्धक और अबन्धक की दृष्टि से विचार करने पर एक मात्र शुद्धकर्म ही अबन्धक है, शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्धक हैं। शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों में रागभाव तो होता ही है। राग के अभाव में किया हुआ कर्म शुभाशुभत्व की भूमिका से ऊपर उठकर शुद्धत्व की भूमिका में पहुँच जाएगा। परन्तु यहाँ कर्म के शुभाशुभत्व का आधार राग की अनुपस्थिति उपस्थिति नहीं, अपितु राग की प्रशस्तताअप्रशस्तता है। प्रशस्तराग शुभकर्म के या पुण्य के बन्ध का और अप्रशस्त राग अशुभकर्म के या पाप के बन्ध का कारण माना गया है। जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी कम या मन्द होगी, वह राग उतना ही प्रशस्त होगा। इसके विपरीत जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अधिक या तीव्र होगी, वह उतना ही अप्रशस्त होगा । २
द्वेष की अत्यल्पता अथवा प्रशस्तरागता को ही 'प्रेम' कहते हैं। उस प्रशस्त प्रेम से परार्थ प्रवृत्ति या परोपकारवृत्ति का उदय होता है, वही शुभकर्म (पुण्य) की सृष्टि का कारण होता है। उसी से लोकमंगलकारी या समाज कल्याणकारी शुभ प्रवृत्तियों के रूप में पुण्यकर्म का आचरण होता है। इसके विपरीत अप्रशस्त राग घृणा, विद्वेष, ईर्ष्या, असूया, तुच्छ स्वार्थवृत्ति, अतिलोभ आदि वृत्तियों को जन्म देता है। उनसे पाप या अमंगलकारी अशुभकर्म का सृजन होता है। संक्षेप में यों कहा जा सकता है, जिस कर्म के पीछे शुभभावना, शुभ हेतु और प्रशस्तराग (प्रेम) या परार्थपरोपकारवृत्ति होती है, वह कर्म शुभ है, और जिसके पीछे घृणा, द्वेष, तुच्छ स्वार्थ, रौद्रध्यान, परपीड़न, अतिलोभ आदि की वृत्ति होती है, वह कर्म अशुभ है।
१. " तहेव काणं काणत्ति पंडगं पंडगेत्ति वा ।
वाहिय वावि रोगित्ति, तेणं चोरेत्ति नो वए ॥
२. जैनकर्म- सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश उद्धृत पृ.४१
३. वही, भावांश अवतरित, पृ. ४१
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- दशवैकालिक सूत्र अ. ७ गा. १२
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