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कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप
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समझकर विवाहादि मंगल-प्रसंगों पर मनुष्य की खोपड़ी लेकर शोभायात्रा में चला जाता था। परन्तु जैनों को यह रिवाज बिल्कुल अमांगलिक और भद्दा लगा, अतः उसके बदले नारियल (श्रीफल) को लेकर चलने का रिवाज प्रचलित किया।
समाज-सापेक्ष इन दोनों अमंगल कृत्यों को मंगल (शुभ) कर्म के नाम पर चलाया जा रहा था, जिसको जैनों ने इन दोनों कुप्रथाओं के बदले सुप्रथा चलाकर वास्तविक मंगलकर्म सिद्ध किया। इसलिए जैनदर्शन ने किसी कर्म से समाज पर पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभाव को लेकर भी शुभाशुभत्व का निर्णय किया है। पाश्चात्य सुखवादी विचारक कर्म की फलश्रुति के आधार पर प्राय शुभाशुभत्व का निर्णय करते हैं। परोपकार कर्म शुभ ः परपीड़न कर्म अशुभ
कहीं-कहीं शुभाशुभता का आधार परिणाम (क्रिया के फल) को माना गया है। 'परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीड़न' (परोपकार पुण्य के लिए और परपीड़न पाप के लिए है) इस भारतीय चिन्तन में कर्म के शुभाशुभत्व का निर्णय परोपकार और परपीड़न के आधार पर होता है। जैन विचारकों ने पुण्यबन्ध (शुभकर्मबन्ध) को भी अन्नपुण्णे आदि नवविध कारणाश्रित बताया है, और पापकर्म को भी प्राणातिपात आदि अष्टादशपापस्थान पर आधारित बताया है। वस्तुतः पुण्य-पाप (शुभाशुभ कम) के सम्बन्ध में जिन तथ्यों का आगमों में प्रमुखरूप से उल्लेख किया गया है, उनका प्रमुख सम्बन्ध समाज-कल्याण तथा लोकमंगल तथा समाज का अकल्याण एवं लोक-अमंगल से है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शुभ-अशुभ (या पुण्यपाप) के वर्गीकरण का मुख्य आधार समाज-सापेक्ष है। किन्तु कर्मबन्ध की दृष्टि से विचार करते समय कर्ता की भावना को प्रमुखता दी गई है। आत्मानुकूल शुभ, आत्म-प्रतिकूल अशुभ . ... . कर्म के शुभत्व और अशुभत्व के पीछे एक और दृष्टिकोण है-दूसरे को अपने तुल्य मानकर व्यवहार करने का। इसलिए प्राणियों के प्रति या मानव समाज के प्रति किये गए शुभाशुभ व्यवहार, दृष्टिकोण या आशय के अनुसार शुभाशुभत्व का निर्णय होता है। कौन-सा व्यवहार शुभ, कौन-सा अशुभ : इसकी कसौटी आत्मतुल्यता .. परन्तु दूसरे प्राणी या मानव के प्रति किसका कौन-सा व्यवहार या १. देखें-गोभिल गृह्यसूत्र। २. जैन-कर्मसिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश, पृ. ४१ ३. वही, भावांश उद्धृत पृ. ४२ ।।
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