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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५२७
(अशुभ) कर्म कहा है, उन्हें बौद्धदर्शन में कुशल (शुक्ल) और अकुशल (कृष्ण) कर्म कहा है। बौद्धपरम्परा में प्रायः फल देने की योग्यता-अयोग्यता को लेकर 'कम' का विचार किया गया है। जिन्हें जैन परम्परा में क्रमशः (साम्परायिक) विपाकोदयी एवं (ईपिथिक) प्रदेशोदयी कर्म कहा है, उन्हें ही बौद्ध परम्परा में क्रमशः उपचित, अनुपचित कर्म कहा है। कृत और उपचित को लेकर चतुर्विध भंग
'महाकर्म-विभंग' में कृत और उपचित को लेकर चार विकल्प (भंग) प्रस्तुत किये गये हैं-(१) अकृत, किन्तु उपचित कर्म, (२) कृत भी और उपचित भी, (३) कृत हैं, किन्तु उपचित नहीं, और (४) कृत भी नहीं और उपचित भी नहीं।
कत का अर्थ है-सम्पादित और उपचित का अर्थ है-फल प्रदान करने वाला। प्रथम भंग में उन कर्मों का समावेश होता है, जो क्रोध, द्वेष, मोह आदि वासना के प्रति तीव्र रूप से वशीभूत होकर कर्म-संकल्प किये जाते हैं, वे कृत (कार्यरूप में परिणत) तो नहीं हुए, किन्तु उपचित (फल देने की योग्यता से युक्त) अवश्य होते हैं। .
दूसरे भंग में वे कर्म आते हैं, जो कृत भी हैं, उपचित भी। अर्थात्-वे कर्म, जिन्हें संकल्पपूर्वक सम्पादित किया गया है, और ऐसे कर्म संचित होकर फल देने में सक्षम (उपचित) भी होते हैं। ध्यान रहे कि अकृत-उपचित और कृत-उपचित, ये दोनों प्रकार के कर्म शुभ और अशुभ दोनों कोटि के हो सकते हैं:
... तीसरे भंग में वे कर्म आते हैं, जो कृत तो हैं, लेकिन उपचित नहीं हैं। अर्थात्-(१) जो कर्म संकल्पपूर्वक नहीं किये जाते, (२) अथवा संचिन्त्य होते हुए भी जो सहसाकृत (आकस्मिक) होते हैं, (३) अथवा भ्रान्तिवश किये गए हों, (४) अथवा कर्म करने के बाद उसका पश्चात्ताप, ग्लानि, या आलोचना (प्रकटीकरण) या प्रायश्चित्त किया गया हो, अथवा (५) शुभकर्म का अभ्यास करने से तथा बुद्ध आदि की शरण ग्रहण करने से भी पापकर्म उपचित नहीं होता। ये और इस प्रकार के कर्म कृत होते हुए भी उपचित (फलप्रदान के योग्य) नहीं होते।
___ चौथे भंग में वे कर्म आते हैं, जो कृत भी नहीं होते और उपचित भी नहीं होते। ऐसे कर्म प्रायः स्वप्नावस्था में किये गए होते हैं। . कौन-से कर्म बन्धनकारक, कौन-से अबन्धनकारक ?
बौद्धदर्शन का मन्तव्य है कि इनमें से प्रथम दो भंगों में प्रतिपादित कर्म प्राणी को बन्धन में डालते हैं, शेष दो भंगों में उक्त कर्म बन्धन में नहीं
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