Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 547
________________ कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५२५ न्याय दिलाने, किसी महिला के शील की रक्षा करने, आदि कर्त्तव्यबुद्धि से किये जाने वाले पापकर्मफलोत्पादक कर्म भी शुभकर्म में अथवा अकर्म में भी परिणत हो जाते हैं । " " किन्तु 'निष्कामबुद्धि से प्रेरित होकर युद्ध तक लड़ा जा सकता है। 'तिलक' के इस मत से जैनदर्शन सम्मत नहीं है, क्योंकि अकर्मावस्था वीतरागावस्था है, वीतरागावस्था में सांसारिक प्रवृत्तिमय कर्म किया जाना सम्भव नहीं। हाँ, यह (शुभ) कर्म में परिगणित हो सकता है । विकर्म प्रतीत होने वाला कर्म भी (शुभ या शुद्ध) कर्म : कब और कैसे ? इसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन में देहासक्ति या क्रियासक्ति नहीं है, जो अहंकार, प्रसिद्धि, प्रशंसा, लौकिक-पारलौकिक उपलब्धि आदि फलाकांक्षाओं से रहित होकर निष्काम - निःस्वार्थ भाव से यतनापूर्वक शारीरिक क्रियाएँ करता है, उसके शरीर और इन्द्रियों से यदि किसी प्राणी की (सावधानी रखते हुए भी) हिंसा हो जाती है, तो वह हिंसा पापकर्मबन्धकारक नहीं होती। उसका विकर्म प्रतीत होनेवाला कर्त्तव्यबुद्धि से किया जाने वाला कर्म भी विकर्म नहीं होता; उससे हिंसाजन्य पापकर्म का बन्ध नहीं होता । यहाँ प्रवचनसार का निम्नोक्त कथन ही गीता में प्रतिध्वनित हुआ है - "बाहर में प्राणी मरे या जीए, जो अयताचारी - प्रमत्त है, उसके द्वारा हिंसा (जन्य कर्मबन्ध) निश्चित है, परन्तु जो यत्नचारशील है, समितियुक्त है, उसे बाहर से होने वाली (द्रव्य) हिंसामात्र से (पाप) कर्मबन्ध नहीं होता; क्योंकि वह अन्तर् में सर्वतोभावेन हिंसादि सावद्य व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप (निरवद्य) है। उससे होने वाली स्थूल हिंसा भावहिंसा नहीं है। २ गीता की भाषा में अकर्म भी कर्म, कर्म भी अकर्म : कब और कैसे ? गीता की दृष्टि में मन, वाणी और शरीर की क्रिया के अभाव को अकर्म नहीं कहा गया, अपितु जैनदर्शन द्वारा मान्य ईर्यापथिक क्रियाएँअनिवार्य (रागादि रहित) शारीरिक क्रियाएँ जैसे अकर्म कहलाती हैं, वैसे ही गीता में भी अनिवार्य शारीरिक क्रियाएँ, जो इन्द्रियों और मन पर संयम रखकर तथा आसक्ति एवं फलाकांक्षा रहित होकर की जाती हैं, उन्हें अकर्म कहा गया है। १. (क) भगवद्गीता अ. १८, श्लो. १७ (ख) गीतारहस्य ४ / १६ टिप्पणी । २. (क) भगवद्गीता १८/२३ (ख) मरदु वा जियदु वा जीवो, अयदाचारस्स निच्छिदा हिंसा । पदस्स यि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्रवचनसार ३/१७ www.jainelibrary.org

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