________________
कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५२३
हर्ष - शोकादि द्वन्द्वों से अतीत, मात्सर्य ( ईष्या) से रहित तथा सिद्धि - असिद्धि (सफलता- असफलता) में समत्व रखने वाला साधक कर्म करता हुआ भी उससे नहीं बंधता।"
'गीतारहस्य' में भी यही दृष्टिकोण प्रकट किया गया है कि कर्म और अकर्म का विचार इसी दृष्टि से करना चाहिए कि मनुष्य को वह कर्म कहाँ तक बद्ध करेगा। करने पर भी जो कर्म हमें बद्ध नहीं करता, उसके विषय मैं कहना चाहिए कि उसका कर्मत्व अथवा बन्धकत्व नष्ट हो गया। यदि किसी भी कर्म का बन्धकत्व अर्थात् कर्मत्व इस प्रकार नष्ट हो जाए तो फिर वह कर्म अकर्म ही हुआ । कर्म के बन्धकत्व (पर) से यह निश्चय किया जाता है कि वह कर्म (विकम) है या अकर्म ? १
भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म का स्वरूप
भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म के स्वरूप पर गहराई से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। वहाँ कहा गया है - "हे अर्जुन! कर्म की गति अतीव गहन है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को कर्म और विकर्म (निषिद्ध कर्म) का स्वरूप जानना चाहिए, साथ ही अकर्म (शुद्ध कर्म) के स्वरूप का बोध भी करना चाहिए। इस प्रकार का विवेक करने वाला साधक कर्म में अकर्म को देख लेता हैं और अकर्म कहे जाने कार्य में 'कर्म' को भी पहचान जाता है। ऐसा व्यक्ति मनुष्यों में श्रेष्ठ और बुद्धिमान् होता है। वह सहज और अनिवार्य सभी शारीरिक कर्म करता है।"
गीता में यह भी बताया गया है कि "स्वभाव से नियत किये हुए कर्म को करता हुआ भी मनुष्य पाप को (पाप कर्मबन्ध) को प्राप्त नहीं होता । " "अतः दोषयुक्त होने पर भी सहज (स्वभावज ) कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।"
गीता के अनुसार 'कर्म' वह है जो फल की इच्छा से किया जाता है, भले ही वह शुभ हो । यज्ञ, दान, तप, त्याग, व्रत, नियम, श्रद्धा भक्ति आदि शुभकार्य भी यदि शुभ - रागाविष्ट होकर प्रसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिस्पर्द्धाविश १. (क) निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्त- सर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् । यदृच्छालाभ-सन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥
(ख) गीता रहस्य (लोकमान्य तिलक) से पृ. ६८४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
-गीता ४/२१-२२
www.jainelibrary.org