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५२२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
"ऐसे अकर्मशील व्यक्ति के जीवन से लौकिक व्यवहार अथवा प्रदर्शन, आडम्बर, प्रपंच, नाना उपाधियाँ आदि राग-द्वेषोत्पादक कार्य नहीं होते।"
वस्तुतः कर्म-विकर्म तथा अकर्म को पहचानने में क्रिया या व्यवहार प्रमुख तत्त्व नहीं है। प्रमुख तत्त्व है-कर्ता का चेतन-पक्ष। यदि कर्ता की चेतना प्रबुद्ध है, विशुद्ध है, जागृत है, कषायवृत्ति-रहित या रागादिशून्य है, तथा अप्रमत्त और सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न है, तो क्रिया या व्यवहार के बाह्य रूप का कोई महत्व नहीं होता।"
इष्टोपदेश में इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है.--"जो आत्मस्वभाव में स्थिर है, वह बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता, देखते हुए भी नहीं देखता है।"
उत्तराध्ययनसूत्र में भी स्पष्ट कहा गया है-"रागादि भावों से विरत व्यक्ति शोकरहित हो जाता है, वह संसार में रहते हुए भी कमलं पत्रवत् अलिप्त रहता है।"
आचारांग के अनुसार "नाना उपाधियाँ तथा लौकिक व्यवहार का आधिक्य कर्म-विकर्म के कारण ही रहता है।"२ कर्म, विकर्म और अकर्म का स्पष्ट लक्षण
संक्षेप में, जो प्रवृत्तियाँ या कर्म रागादियुक्त होने से शुभबन्धनकारक हैं, वे कर्म हैं जो अशुभबन्धनकारक हैं, वे विकर्म हैं, और जो प्रवृत्तियाँ या कर्म रागद्वेष रहित होने से बन्धनकारक नहीं हैं, वे अकर्म ही हैं। ___'गीता' में भी अकर्मवान् का लक्षण यही किया है कि "जो आशाआकांक्षा से रहित है, जिसका चित्त और आत्मा प्रयत है अर्थात्यतनाशील है, जिसने समस्त परिग्रहवृत्ति का त्याग कर दिया है, वह साधक केवल शारीरिक अनिवार्य कर्म करता हुआ पाप को नहीं प्राप्त होता। स्वतः (अनायास) जो कुछ प्राप्त हो, उसी में सन्तुष्ट रहने वाला, १. (क) लोभं अलोभेण दुगुंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। विणइत्तु लोभ निखम्म एस अकम्मे जाणति पासति।
-आचारांग श्रु. १ अ. २ उ. २ (ख) 'कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के।'
-वही श्रु. १ अ. २ उ.६ (ग) 'अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।'
-वही १/३/१ (घ) जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश पृ. ५२ २. (क) इष्टोपदेश (आचार्य पूज्यपद)४१ (ख) उत्तराध्ययन सूत्र ३२/९९ (ग) "कम्मुणा उवाही जायइ।"-आचारांग १/३/१
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